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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
१२७ सर्व चेतसि भासेत वस्तु भावनया स्फुटम् । तावन्मात्रेण मुक्तत्वे मुक्तिः स्याद्विप्रलम्भिनाम् ।।२६ तदुक्तम्
‘पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रनिर्भेद्ये।
मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम्" ।। २७ स्वभावान्तर संभूतिर्यत्र तत्र मलक्षयः । कर्तुं शक्यः स्वहेतुभ्यो मणिमुक्ताफलेष्विव ॥ २८ 'तदहर्जस्तनेहातो रक्षोदष्टर्भवस्मतेः । भतानन्वयनाज्जीवः प्रकृतिज्ञः सनातनः" ।। २९ भेदोऽयं यद्यविद्या स्याद्वैचित्र्यं जगतः कुतः । जन्ममृत्युसुखप्रायविवर्तनिवतिभिः ॥ ३० से मिले हुए ही रहते है । तब उनमें भेद ग्रहणका कथन सांख्याचार्य कैसे करते हैं ॥२५॥ (पहले नैरात्म्य भावनासे मुक्ति माननेवाले एक मतका उल्लेख कर आये हैं,उसकी आलोचना करते हुए ग्रन्थकार कहते है-) ६. भावनासे सभी वस्तु चित्तमें स्पष्ट रूपसे झलकने लगती है। यदि केवल उतनेसे ही मुक्ति प्रान्त होती हैं तो ठगोंकी भी मुक्ति हो जायेगी॥२६।।कहा भी है ''सब ओरसे बन्द जेलखाने में अत्यन्त घोर अन्धकारके होते हुए और मेरे आँख बन्द कर लेनेपर भी मुझे अपनी प्रियाका मुख स्पष्ट दिखाई देता हैं"।२७। भावार्थ-आशय यह है कि भावना जैसी भाई जाती हैं वैसी हो वस्तु दिखाई देने लगती हैं । अत: केवल भावनाके बलपर यथार्थ वस्तुकी प्राप्ति नहीं हो सकती। (इस प्रकार नैरात्म्य भावनावादीको उत्तर देकर आचार्य जैमिनिके मतकी आलो. चना करते है । जैमिनिका कहना है कि स्वभाक्से ही कलुषित चित्तकी विशुद्धि नहीं हो सकती। इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते है-(७) जिस वस्तुमें स्वभावान्तर हो सकता है,उसमें अपने कारणोंसे मलका क्षय किया जा सकता है, जैसा कि मणि और मोतियोंमें देखा जाता है अर्थात् माणि मोती वगैरह जन्मसे ही सुमैल पैदा होते है किन्तु बादको उनका मैल दूर करके उन्हें चमकदार बना लिया जाता है । इसी तरह अनादिसे मलिन आत्मासे भी कर्म-जन्य मलिनताको हटाकर उसे विशुद्ध किया जा सकता हैं।।२८।। (अब आत्मा और परलोकको न माननेवाले चावाकोंको उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं . ) ८.उस दिनका पैदा हुआ बच्चा माताके स्तनोंको पीनेकी चेष्टा करता है, राक्षस वगैरह देखे जाते हैं किसी-किसीको पूर्व जन्मका स्मरण भी हो जाता है,तथा आत्मामें पञ्च भूतोंका कोई भी धर्म नहीं पाया जाता । इन बातोंसे प्रकृतिका ज्ञाता जीव सनातन सिद्ध होता हैं।।२९।। भावार्थ-आशय यह हैं कि चार्वाक आत्माको एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता। उसका कहना हैं कि जैसे कई चीजोंके मिलानेसे शराव बन जाती है और उसमें मादकता उत्पन्न हो जाती हैं,उसी तरह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतोंके मिलनेसे एक शक्ति उत्पन्न हो जाती है या प्रकट हो जाती हैं, उसे ही आत्मा कह देते हैं। जब वे पाँचों भूत बिछुड जाते हैं तो देह शक्ति भी नष्ट हो जाती हैं। अतः पञ्चभूतोंके सिवाय आत्मा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं हैं। इसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि एक तो उसी दिनका जन्मा हुआ बच्चा माताके स्तनोंको पीनेकी चेष्टा करता हुआ देखा जाता हैं,और यदि उसके मुंहमें स्तन लगा दिया जाता हैं तो झट पीने लगता हैं । यदि बच्चे को पूर्व जन्मका संस्कार न होता तो पैदा होते ही उसमें ऐसी चेष्टा नहीं होनी चाहिए थी। यह सब पूर्व जन्मका संस्कार ही हैं। तथा राक्षस व्यन्तरादिक देव देखे जाते है जो अनेक बातें बतलाते हैं। पूर्व जन्मके स्मरणकी कई घटनाएँ सच्ची पाई गई हैं,तथा सबसे बडी बात तो यह हैं कि यदि चैतन्य भूतोंके मेलसे पैदा होता हैं तो उसमें भूतोंका धर्म पाया जाना
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