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________________ १२८ श्रावकाचार-संग्रह शून्यं तत्त्वमहं वादी साधयामि प्रमाणतः । इत्यास्थायां विरुध्येत सर्वशून्यत्ववादिता ।। ३१ बोधो वा यदि वानन्दो नास्ति मुक्तौ भवोद्भवः । सिद्धसाध्यतयास्माकं न काचित्क्षतिरीक्ष्यते।।३२ न्यक्षवीक्षाविनिर्मोक्षे मोक्षे कि मोक्षिलक्षणम् । ह्यग्नाबन्यदुष्णत्वाल्लक्ष्म लक्ष्यं विचक्षणः ।। ३३ किं च सदाशिवेश्वरादयः संसारिणो मुक्ता वा? संसारित्वे कथमाप्तता? मुक्तत्वे 'क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्ठः पुरुषविशेष ईश्वरस्तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् इति पतञ्जलिकल्पितम्' ... ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्तिनिसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु। आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्तिर्ज्ञानं च सर्वविषयं भगवंस्तवैव" ।। ३४ चाहिए था, क्योंकि जो वस्तु जिन कारणोंसे पैदा होती हैं उस वस्तुमें उन कारणोंका धर्म पाया जाता है,जैसे मिट्टीसे पैदा होनेवाले घडे में मिट्टीपना रहता हैं,धागोंसे बनाये जाने वाले वस्त्रमें धागे पाये जाते हैं, किन्तु चैतन्यमें पंचभूतोंका कोई धर्म नहीं पाया जाता । पंचभूत तो जड होते हैं उनमें जानने-देखनेकी शक्ति नहीं होती,किन्तु चैतन्यमें जानने-देखनेकी शक्ति पाई जाती हैं। तथा यदि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म हैं तो मोटे शरीरमें अधिक चैतन्य पाया जाना चाहिए था और दूबले शरीरमें कम । किन्तु इसके विपरीत कोई-कोई दुबले-पतले बडे मेधावी और ज्ञानी देखे जाते है और स्थल मनुष्य निर्बुद्धि होते हैं। तथा यदि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म है तो शरीरका हाथ-पैर आदि कट जानेपर उसमें चैतन्यकी कमी हो जानी चाहिए; क्योंकि पंचभूत कम हो गये है किन्तु हाथ-पैर वगैरहके कट जानेपर भी मनुष्यके ज्ञानमें कोई कमी नहीं देखी जाती। इससे सिद्ध है कि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म नहीं है बल्कि एक नित्य द्रव्य आत्माका ही धर्म है। अत: आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है। (अब आचार्य वेदान्तियोंके मतकी आलोचना करते हुए उनसे पूछते है-) ९. यदि यह भेद अविद्याजन्य हैं-अज्ञानमूलक है,तो क्यों कोई मरता है और कोई जन्म लेता है? कोई सुखी और कोई दुखी क्यों देखा जाता है? इस प्रकार संसारमें वैचित्र्य क्यों पाया जाता है।३०।। (अब आचार्य शन्यवादी बौद्धके मनकी आलोचना करते है-) १०. 'मै शून्य तत्त्वको प्रमाणसे सिद्ध करता हूँ', ऐसी प्रतिज्ञा करनेपर सर्वशून्यवादका स्वयं विरोध हो जाता है ॥३१॥ भावार्थ-आशय यह है कि शन्यतावादी अपने मतकी सिद्धि यदि किसी प्रमाणसे करता है तो प्रमाण के वस्तु सिद्ध हो जानेसे शन्यतावाद सिद्ध नहीं हो सकता । और यदि बिना किसी प्रमाणके ही शून्यतावादको सिद्ध मानता है तब तो दुनियामें ऐसी कोई वस्तु ही न रहेगी जिसे सिद्ध न किया जा सके । और ऐसी अवस्थामें बिना प्रमाणके ही शून्यतावादके विरुद्ध अशून्यतावाद भी सिद्ध हो जायेगा । अतः सर्वशून्यतावाद भी ठीक नहीं है। (अब आचार्य मुक्तिमें आत्माके विशेष गुणोंका विनाश माननेवाले कणाद मता. नयायियोंकी आलोचना करते है-) ११ यदि आप यह मानते है कि मुक्तिमें संसारिक सुख-दुःख नहीं है तो इसमें कोई हानि नहीं है,यह बात तो हमको भी इष्ट ही है। किन्तु यदि आत्माके समस्त पदार्थविषयक ज्ञान के विनाशको मोक्ष मानते है तो फिर मुक्तात्माका लक्षण क्या है? क्योंकि विद्वान् लोग वस्तुके विशेष गुणोंको ही वस्तुका लक्षण मानते है,जैसे आगका लक्षण उष्णता है,यदि आगकी उष्णता नष्ट हो जाये तो फिर उसका लक्षण क्या होगा? फिर तो आगका ही अभाव हो जायेगा; क्योंकि विशेष गुणोंके अभावमें गुणीका भी अभाव हो जाता है। अतः यदि मुक्तिम आत्माके ज्ञानादि विशेष गणोंका अभाव माना जायेगा तो आत्माका भी अभाव हो जायेगा ।।३२-३३।। तथा आपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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