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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४७९ गच्छइ विसुद्धमाणो पडिसमयमणंतगुणविसोहीए। अणियटिगणं तत्थ वि सोलह पयडीओ पाडेइ५२. अट्ठ कसाए च तओ णqसयं तहेव इथिवेयं च । छण्णोकसाय पुरिसं कमेण कोहं पि संछुहइ ॥५२१ कोहं माणे माण मायाए तं पि छुहइ लोहम्मि । बायरलोहं' पितओ कमेण णिटुवइ तत्येव ।।५२२ अणुलोहं वेदंतो संजायइ सुहमसंपरायो सो । खविऊण सुहमलोहं खीणकसाओ तओ होइ ॥५२३ तत्थेव सुक्कझाणं विदियं पडिवजिऊण तो तेण । णिद्दा-पयलाउ दुए दुचरिमसमयम्मि पाडेइ ५२४ णाणतराय दसयं दंसण वत्तारि चरिमसमयम्मि। हणिऊण तक्खणे च्चिय सजोगिकेवलिजिणो होइ ।।२२५ तो सो तियालगोयर-अणंतगुणपज्जयप्पयं वत्थु । जाणइ पस्सइ जुगवं णवकेवललद्धिसपण्णो।।५२६ दाणे लाहे भोए परिभोए वीरिए सम्मत्ते। णवकेवललद्धोओ सण जाणे चरित्ते य ॥५२७ ।। उक्कस्सं च जहण्णं पज्जायं विहरिऊण सिज्झेइ । सो अकयसमुग्धाओ जस्साउसमाणि कम्माणि॥ गुणस्थानको प्राप्त होता है । वहाँपर पहले मोलह प्रकृतियों को नष्ट करता है ।।५१९-५२०॥ विशेषार्थ वे सोलह प्रकृतियाँ ये हैं-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्त्यानगुद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत, आतप, एकेन्द्रियजाति, साधारण, सूक्ष्म और स्थावर । इन प्रकृतियोंको अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागमें क्षय करता हैं । सोलह प्रकृतियोंका क्षय करने के पश्चात् आठ मध्यम कषायोंको. नपुंसकवेदको, तथा स्त्रीवेदको, हास्यादि छह नोकषायोंको और पुरुषवेदको नाश करता है और फिर क्रमसे संज्वलन क्रोधको भी संक्षुभित करता है । पुनः सज्वलनक्रोधको संज्वलनमानमें, संज्वलनमानको संज्वलन गाया और संज्वलन मायाको भी बादर-लोभ में संक्रामित करता हैं ! तत्पश्चात् क्रमसे बादर लोभको भी उसी अनिवृत्तिकरण गणस्थानमें निष्ठापन करता है, अर्थात् सूक्ष्म लोभरूपसे परिणत करता है ।।५५१-५२२।। तभी सूक्ष्मलोभका वेदन करनेवाला वह सूक्ष्मसामराय गुणस्थानवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय संय . होता है। तत्पश्चात् सूक्ष्म लोभका भी क्षय करके वह क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थ नमें जाकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ होता हैं। वहाँपर ही द्वितीय शुक्कध्यानको प्राप्त करके उसके द्वारा बारहवें गुणस्थानके द्विचरम समयमें निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोंको नष्ट करता है । चरम समयमें ज्ञानावरण कर्मकी पाँच, अन्तरायकर्मकी पाँच और दर्शनावरणकी चक्षुदर्शन आदि चार इन चौदह प्रकृतियोंका क्षय करके वह तत्क्षण ही सयोगि-केवलो जिन हो जाता हैं ।।५२३-५२५ । तब वह नव केवललब्धियोंसे सम्पन्न होकर त्रिकाल-गोचर अनन्त गुण पर्यायात्मक वस्तुको युगपत् जानता और देखना है। क्षायिकदान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक परिभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक दर्शन (केवल दर्शन), क्षायिक ज्ञान).(केवलं ज्ञान),और क्षायिक चारित्र (यथाख्यात चारित्र), ये नव केवललब्धियाँ हैं ।।५२६-५२७।। वे सयोगि केवलो भगवान् उत्कृष्ट और जघन्य पर्याय-प्रमाण विहार करके, अर्थात् तेरहवें गुणस्थानका उत्कृष्ट काल-आठ वर्ष और अन्तर्मुहर्तकम पूर्वकोटी वर्षप्रमाण है और जवन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं, सो जिस केवलोकी जितनी आय हैं, तत्प्रमाण काल तक नाना देशोंमें विहार कर और धर्मोमदेश देकर सिद्ध होते हैं। (इनमें कितने ही सयोगिकेवली समुद्घात करते हैं और कितने ही नहीं करते है । ) सो जिस केवलीके आयु कर्मकी १ झ. लोहम्मि । प. लोयम्मि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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