SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 499
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८० श्रावकाचार-संग्रह जस्स ण हु आउसरिसाणि णामागोयाणि वेयणीयं च । सो कुणइ समुग्घायं णियमेण जिणो ण संदेहो ॥५२९ छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं होज्ज'। सो कुणइ समुग्घायं इयरो पुण होइ भयणिज्जो ।।५३० अंतोमहत्तसेसाउगम्मि दंड कवाड पयरं च । जापूरणमथ पयरं कवाडदंडं णियतणुपमाणं च ।।५३१ एवं पएसपसरण-संवरणं कुणइ अट्टसमएहिं । होहिति जोइचरिमे अघाइकम्माणि सरिसाणि। ५३२ बायरमण-वचिजोगे रुंभइ तो थूलकायजोगेण । सुहुमेण तं पि रुंभइ सुहुमे मण-वयणजोगे य ॥५३३ सो सुहुमकायजोगे वटुंतों झाइए तइयसुक्कं । रुभित्ता तं पि पुणा अजोगिकेवलिजिणो होइ। ५३४ बावत्तरि पयडीओ चउत्थसुक्केण तत्थ घाएइ। दुचरिमसमम्हि तओ तेरस चरिमम्मि णिटुवइ ।।५३५ तो तम्मि चेव समय लोयग्गे उड्ढगमणसभाओ। संचिट्ठइ असरीरो पवरटुगुणप्पओ णिच्च।५३६ सम्मन णाण सण अहेव वोरिय सुहमं अवगहणं । अगुरुलहुमव्वावाहं सिद्धाणं वणिया गुणटुंदे ।।५३७ स्थितिके बराबर शेष नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थिति होती है, वे तो समुद्घात किये बिना ही सिद्ध होते हैं। किन्तु जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म आयु के बराबर नहीं है वे सयोगिकेवली जिन नियमसे समुद्घात करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं ।। ५२८-५२९ छह मासकी आय अवशेष रहनेपर जिसके केवलज्ञान उत्पन्न होता हैं, केवली समद्घात करते हैं, इतर केवली भजनीय हैं,अर्थात् समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं ।। ५३०।। सयोगिकेवली अन्तर्मुहुर्तप्रमाण आयुके शेष रह जानेपर (शेष कर्मोको स्थितिको समान करनेके लिए)आठ समयों के द्वारा दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण, पुनः प्रतर कपाट, दंड और निज देह-प्रमाण, इस प्रकार आत्म-प्रदेशोंका प्रसारण और संवरण करते है । तब सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तमें अघातिया कर्म सदृश स्थितिवाले हो जाते है ।।५३१-५३२।। तेरहवें गुणस्थानके अन्त में सयोगिकेवली जिनेन्द्र बादरकाययोगसे बादर मनोयोग और बादर वचनयोगका निरोध करते हैं । पुनः सूक्ष्म काययोगसे सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करते है। तब सूक्ष्म काययोग में वर्तमान सयोगिकेवली जिन तृतीय शुक्लध्यानको ध्याते हैं और उसके द्वारा उस सूक्ष्म काययोग का भी निरोध करके वे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली जिन हो जाते है।।५३३-५३४|| उस चौदहवें गणस्थानके द्विचरम समयमें चौथे शुक्लध्यानसे बहत्तर प्रकृतियोंका धात करता हैं और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियोंका नाश करता है । उस ही समयमें ऊध्वंगमन स्वभाववाला यह जीव शरीर. रहित और प्रकृष्ट अष्ट-गुण-सहित होकर नित्यके लिए लोकके अग्र भागपर निवास करने लगता हैं ॥५३५-५२६।। सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरु १ इ. म. णाणं । -म और इ प्रतिमें ये दो गाथाएं और अधिक पाई जाती हैमोहक्खएण सम्म केवलणाणं हणेइ अण्णाणं । केवलदसण ५सण अणंतविरियं च अन्तराएण ।।१।। सहमं च णामकम्म आउहणणेण हवइ अवगहणं । गोय च अगुरुलहयं अव्वाबाहं च वेयणीयं च।।२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy