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श्रावकाचार-संग्रह
न विद्यते यत्र कलेवरं निजं स्वकीयबुद्धया मनसि व्यवस्थितम् । तदीयसम्बन्धमवा: सुतादयः परे कथं तत्र निजा निगद्यताम् ॥३१ करोति बाह्येषु ममेति शेमुषीं परेष्वयं यावदनर्थकारिणीम् । न निर्ममस्तावदमुष्य संसृतेरिति त्रिधा सा विदुषा विमुच्यताम् ।।३२ क्षणादमेव्याः शुचयोऽपि भावा: संसर्गमात्रेण भवन्ति यस्य । शरीरत: सन्ततपूतगन्धेस्ततः परं किञ्चन नास्त्यशौचम् ।।३३ बहुप्रकाराशुचिराशिपूर्णे शुक्रास्रजाते शुचिता क्व काये । अमेध्यपूर्णः किममेध्यकुम्भो दृष्टो हि मेध्य वमुपाददानः ।।३४ मज्जास्थिमेदोमलमांसखानि विगर्हणीयं कृभिजालगेहम् । देहं दधानः शुचिताभिमानं मूों विधत्ते न विशुद्धबुद्धिः ।।३५ स्त्रवन्नवस्रोतविचित्रगथं यो वारिणा शोधयते शरोरम् । अन्हाय दुग्धेन निघष्य मन्ये विशुद्धमङ्गारमसौ विधत्तं ॥३६ न हन्यते तेन जलेन पापं विवर्यते येन विवियं रागम् । यद्यस्य जन्म'प्रभवे समर्थ तत्तस्य दृष्टं न विनाशकारि ।।३७ विनाश्यते चेत्सलिलेन पापं धर्मस्तदानीं क्रियते किमर्थम् ।
आरोहणं कोऽपि करोति वृक्षे फले हि हस्तेन न लभ्यमाने ।।३८ और विनाशीक है । इस लिए निर्मल बुद्धिवाले ज्ञानी जन बाह्य पदार्थोमें 'यह मेरा है' ऐसी बद्धिको मनसे भी नहीं करते है॥३०॥ जहां 'यह मेरा है' इस प्रकारकी आत्मबुद्धिसे मनमें अघस्थित यह शरीर भी अपना नहीं है, वहां उस शरीरके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए ये पर पुत्रादिक निजी कैसे हो सकते है, यह कहो? अर्थात् जब यह शरीर ही अपना नहीं, तो पुत्रादिक अपने कैसे हो सकते है॥३१॥ जब तक यह अज्ञानी जीव बाहिरी पर पदार्थोमें 'यह मेरा है ऐसी अनर्थकारिणी बुद्धिको करता है, तब तक इसका संसारसे निकलना संभव नहीं है,अतः ज्ञानी जनोंको पर पदार्थोमें ममत्वबुद्धि मन वचन कायसे छोड देना चाहिए ।।३२।। यह अन्यत्व भावना कही।
____ अब अशुचिभावना कहते है-जिस शरीरके संसर्गमात्रसे पवित्र भी पदार्थ क्षण भरमें अपवित्र हो जाते हैं, ऐसे निरन्तर दुर्गन्धमय शरीरसे अन्य और कोई भी वस्तु अपबित्र नहीं है ॥३३॥ अनेक प्रकारकी अशुचि वस्तुओंसे भरे हुए और रज-वीर्यसे उत्पन्न हुए इस शरीर में पवित्रता कहाँ सम्भव हैं? विष्ठासे भरा हुआ अपवित्र घडा क्या पवित्रताको प्राप्त होता हुआ कहीं देखा गया है ।।३४।। मज्जा, हड्डी, मेदा, मल-मूत्र और माँसकी खानिवाला, तथा कृमिजालका घर एसे निन्दनीय शरीरको धारण करते हए मूर्ख मनुष्य ही पवित्रताका अभिमान करता हैं, किन्तु विशुद्ध बुद्धिवाला पुरुष ऐसे निन्द्य शरीरमें पवित्रताका भाव नहीं करता है ।।३५।। जिसके नौ द्वारोंसे निरन्तर मल-मूत्रादिक बहते रहते है, ऐसे शरीरको जो जलसे शुद्ध करना चाहता है, वह काले कोयलेको दूधसे धर्षण करके निर्मल बनाना चाहता हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ।।३६।। जिस जलके द्वारा धोने से शरीरका राग बढकर पाप बढता है, उस जलसे वह पाप कैसे विनष्ट किया जा सकता है? जो वस्तु जिसके उत्पन्न करने में समर्थ हैं, वह उसका विनाश करनेवाली नहीं देखी गई है ।।३७॥ यदि जलसे पाप विनष्ट किया जाता हैं, तो बताओ-धर्म. किसलिए १. मु. विर्ण-।
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