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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः माघेन तीवः क्रियते शशाङ्को ग्रीष्मेण भानुर्यदि नाम शीतः । देहस्तदानीं पयसा विशुद्धो विधीयते दुर्वचगूथयूथः ।।३९ सज्ज्ञानसम्यक्त्वचरित्रतोयेविगाद्यमानैर्मनसाऽपि जीवः । विशोध्यमानस्तरसा पवित्र शुद्धिमभ्येति भवान्तरेऽपि ।।४० रन्ध्ररिवाम्ब विततैरुदधौ तरण्डे जीवे मनोवचनकायविकल्पजालैः । जन्माणवे विशति कर्म विचित्ररूपं सद्यो निमज्जनविधायि सुनिवारम् ।।४१ चित्रण कमपवनेन नियुज्यमान: प्राणिप्लवो बहुविधासुखभाण्डपूर्णः । संसारसागरमसारमलभ्यपारं भूरिभ्रमं भ्रमति कालमनन्तभानम् ॥४२ कर्माददाति यदयं भविन: कषाय: संसारदुःखमविधाय न तद् व्यपैति । यबन्धनं हि विदधाति विपक्षवर्गस्तन्नाम कस्य विरचय्य सुखं प्रयाति ।। ४३ भेदा. सुखासुखविधानविधौ समर्था ये कर्मणो विविधबन्ध र सा भवन्ति । जन्तोः शभाशभमन:परिणामजन्यास्तभ्रंम्यते भववने चिरमेष जोवः ॥४४ गण्हाति कर्म सुखद शुभयोगवृत्त्या दु खप्रदायि तु यतोऽशुभयोगवृत्त्या । आद्या सुखाथिभिरतः सततं विधेया हेया परा प्रचुरकष्टनिदानभूता ॥४५ किया जाता है? हाथसे फल के प्राप्त किये जानेपर कोई भी पुरुष वृक्षपर आरोहण कहीं करता हैं।।३८1। यदि माघ म सके द्वारा चन्द्रमा तीव्र सन्तप्त किया जाय और ग्रीष्मऋतुके द्वारा सूर्य शीतल किया जाय, ये दोनों असम्भव कार्य सम्भव हों, तो निन्दनीय मल-मूत्रका पुंज यह देह भी जलसे शुद्ध होता है ऐसा माना जा सकता है ॥३९।। इस लिए मनके द्वारा अवगाहन किये गये पवित्र सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्ररूप जलसे शीघ्र शुद्ध किया गया यह जीव अन्य भवमें भी अशुद्धिको प्राप्त नहीं होता हैं ।।४०।। भावार्थ -जलादिसे पवित्रता मानना मिथ्या है। जीवकी शुद्धि रत्नत्रय रूप धर्मके परिपालनसे ही होती है । यह अशुचि भावना कही। ____ अब आस्रवानप्रेक्षा कहते हैं-जिस प्रकार समुद्र के विस्तत छिद्रोंके द्वारा नावके भीतर जल प्रवेश करता हैं, उसी प्रकार संसाररूप समुद्र में पडे हुए जीवके भीतर मन वचन कायके विकल्पजालोंसे अति दुनिवार और शीघ्र डुबानेवाला नाना प्रकारका कर्म प्रवेश करता हैं ।।४।। तीव्र-मन्द आदि अनेक प्रकारके पवनके द्वारा प्रेरित और नाना प्रकारके दुःखरूप भांडों (बर्तनों) से परिपूर्ण यह प्राणीरूपी नौका इस असार अगम अपार और भारी भंवरवाले संसार-सागर में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करती रहती हैं ।।४२।। जीवका जो यह कषायभाव कर्मको ग्रहण करता है, वह जीवको सांसारिक दुःख दिये विना दूर नहीं होता है। जैसे शत्रुवर्ग जो बन्धन बाँधता हैं, वह किसे सुख दे करके जाता है? अर्थात् वह तो दुःख दे करके ही छूटता हैं ।।४।। जोवके नाना प्रकारके शभ-अशुभ मनके परिणामोंसे उत्पन्न हुए, सुख और दुःख देनेकी विधिमें समर्थ जो अनेक प्रकारके अनुभागबन्धके रस-भेदवाले कर्म बँधते हैं, उनके द्वारा यह जीव इस भयंकर भव-वन में चिरकालतक परिभ्रमण कराया जाता है ।।४४|| यतः शुभयोगकी परिणतिसे यह जीव सुखदायो पुण्यकर्म को ग्रहण करता है और अशुभ योगको परिण तिसे दुःखदायक पापकर्म को ग्रहण करता हैं, अत: सुखार्थीजनोंको आद्य जो शुभयोग परिणति है, यह नित्य करना चाहिए १. मु भीमें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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