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________________ ४०० श्रावकाचार-संग्रह एकप्रकारमपि योगवशादुपेतं कुर्वन्ति कर्म विविधं विविधाः कषायाः। एकस्वभावमुपगम्य जलं धनेभ्यः प्राप्य प्रदेशमुपयाति न कि विभेदम् ॥४६ मिथ्यात्वदीर्वत्यकषाययोगप्रमाददोषा विविधप्रकाराः । कर्मास्रवाः सन्ति शरीरभाजां जलास्रवा वा सरसां प्रवाहाः ॥ ४७ संवरणं तरसा दुरितानामात्रवरोधकरेषु नरेषु। आगमनस्य कृते हि निरोधे कुत्र विशन्ति जलानि सरस्सु ॥४८ नश्यति कर्म कदाचन जन्तोः संवरेण विना न गृहीतम् । शुष्यति कुत्र जलं हि तडागे सङ्गमने बहुधाऽभिनवस्य ॥४९ योगनिरोधकरस्य सुदृष्टेरस्तकषायरिपोविरतस्य । यत्नपरस्य नरस्य समस्तं संवृतिमच्छति नूतनमेनः । ५० धर्मधरस्य परीषहजेतुर्वृत्तवतः समितस्य सुगुप्तेः । आगमवासितमानसवृत्तः सङ्गतिरस्ति न कर्मरजोभिः ।।५१ दर्शनबोधचरित्रतपोभिश्चेतसि कल्मषमेति न तुष्टे । शूरतरैः पुरुषः कृतरक्षे शत्रुबलं विशति क्व पुरे हि ।।५२ पातकमास्रवति स्थिररूपं संमतिमाप्तवतां न यतीनाम् । वर्मधरान नरान् रणरङ्गे क्वापि भिनत्ति शिलीमुखजालम् । ५३ और प्रचुर कष्ट देनेकी करणभूत दूसरी अशुभयोग प्रवृत्ति छोडना चाहिए ।।४५।। योगके वशके ग्रहण किये गये एक प्रकारके भी कर्मको नाना प्रकारकी कषाय नाना प्रकारका फल देनेवाला कर देती है। जैसे मेघोंसे एक स्वभाववाला जल नीम ईख आदि विभिन्न जातिके वृक्षोंके प्रदेशको प्राप्त होकर क्या कटुक मिष्ट आदि अनेक भेदको नहीं प्राप्त हो जाता हैं ? अर्थात् हो ही जाता है।४६।। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमादरूप दोष शरीरधारियोंके नाना प्रकारके कर्मास्रवके कारण है। जैसे कि सरोवरके प्रवाह उसमें जलके आनेके कारण है ।।४७।। यह आस्रव भावना कही। अब संवरानुप्रेक्षा कहते है-सम्यक्त्वादि भावोंके द्वारा आस्रवका निरोध करनेवाले मनुष्योंमें कर्मोके आनेका शीघ्र संवर होता हैं क्योंकि जल आगमनके द्वारोंका निरोध कर दिये जानेपर सरोवरोंमें जल कहाँ प्रवेश कर सकते है ।।४८।। संवरके विना ग्रहण किया हुआ जीवका कर्म कदाचित् भी नष्ट नहीं होता हैं । जैसे कि अनेक द्वारोंसे नवीन जलका मंगम होते रहने पर सरोवरम जल कहाँ सूख सकता हैं ।।४९।। योगोंका निरोध करनेवाले, सम्यग्दृष्टि, कषायरूप शत्रुके विनाशक, संयमी और सावधान पुरुष के समस्त नवीन कर्म संवरको प्राप्त होता हैं ।।५०।। भावार्थ-कर्मास्रवके कारणभूत मिथ्यात्वादिक भावोंके दूर होनेपर कर्मका आना रुकता ही है । जो मनुष्य उत्तम क्षमादि दशधर्मोका धारण करनेवाला हैं, परीषहोंका विजेता हैं, सामानिकादि चारित्रका धारक है, ईर्यादि समितियोंसे संयुक्त है, गुप्तियोंसे सुरक्षित है और जैनागमसे जिसकी चित्तवृत्ति सुवासित है, उस पुरुषके कर्मरूप रजसे संगति नहीं हो सकती है ।।५१|| सम्यदर्जन ज्ञान चारित्र और तपसे युक्त चित्तमें पापकर्म प्रवेश नहीं कर पाता है, जैसे कि अत्यन्त शूरवीर पुरुषोंसे जिसकी रक्षा की जा रही है, ऐसे नगरमें शत्रुओंको सेना कहाँ प्रवेश कर सकती हैं ।।५२।। स्थिररूप आत्माका अनुभव करनेवाले आत्मज्ञानी साधुओंके १. मु. जुष्ठे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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