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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
कामकषाय हृषीकनिरोधं यो विदधाति परैरसुसाध्यम् । केवललोकविलोकितलोको याति स मुक्तिपुरीमनपायाम् ' ॥ ५४ दृढीकृतो याति न कर्मपर्वतः शरीरिणां निर्जरया विना क्षयम् । न धान्यपुञ्जः प्रलयं प्रपद्यते व्ययं विना क्वापि विवधितश्चिरम ।। ५५ निरन्तरानेकभवाजितस्य या पुरातनस्य क्षतिरेकदेशतः । विपाकजापाकजभेदतो द्विधा यतीश्वरास्तां निगदन्ति निर्जराम् ॥ ५६ अनेहसा या कलिलस्य निर्जरा विपाकजां तां कथयन्ति सूरयः । अपाकजाता भवदुः खर्खावणी विधीयते या तपसा गरीयसा । ५७ विपाकजायामुदितस्य कर्मणो मता परस्यामखिलस्य विच्युतिः । यतो द्वितीयाऽत्र ततो विधानतः सदा विधेया कुशलेन निर्जरा ॥ ५८ तपोभिरुः सति संवरे रजो निषूद्यमानं सकलं पलायते । निरास्रवं वारि विवस्वदंशुभिर्न शोष्यमाणं सरसोऽवतिष्ठते ।। ५९ परेण जीवस्तपसा प्रतापितो विनिर्मलत्वं रभसा प्रपद्यते । सुवर्णशैलस्य मलोऽवतिष्ठते प्रताप्यमानस्य कृशानुना कथम् ।। ६०
कर्मका आस्रव नहीं होता है । जैसे कि रणभूमिमें कवचधारी मनुष्योंको बाणोंका समूह कहीं भी नहीं भेद सकता है ।। ५३ ।। जो मनुष्य साधारण जनोंके द्वारा असाध्य ऐसे काम विकार, कषाय और इन्द्रिय-विषयोंका निरोध करता है, वह केवलज्ञानको प्राप्तकर उसके द्वारा समस्त लोकको देखता हुआ अपाय-रहित एवं अति कठिनतासे पाने योग्य एसी मुक्तिपुरीको जाता है ।। ५४ ॥ इस प्रकार संवर भावना कही ।
अब निर्जरानुप्रेक्षा कहते हैं- जीवोंके साथ दृढरूपसे बँधा हुआ कर्मरूपी पर्वत निर्जराके विना क्षयको प्राप्त नहीं होता है। जैसेकि चिरकालतक वृद्धिको प्राप्त हुआ धान्यका पुंज व्यय के विना कभी भी विनाशको नहीं प्राप्त हो सकता है ।। ५५ ।। निरन्तर अनेक भवोंमें उपार्जित पुरातन कर्मके एकदेश विनाशका निर्जरा कहते हैं । यतीश्वरोंने विपाकजा और अविपाकजाके भेदसे निर्जराको दो प्रकारका कहा है ।। ५६ ।। अपनी स्थितिके पूर्ण होनेपर यथाकाल होनेवाली कर्मकी निर्जराको आचार्य विपाकजा निर्जरा कहते हैं। जो उग्र तपके द्वारा संसारके दुःखोंका विनाश करनेवाली निर्जरा की जाती है, वह अविपाकजा निर्जरा कहलाती है ।। ५७ ।। विपाकजा निर्जरामें तो उदयको प्राप्त हुए कर्मकी ही हानि होती है, किन्तु दूसरी अविपाकजा निर्जसमें उदय और अनुदय प्राप्त सभी कर्मका विनाश होता है। इसलिए कुशल पुरुषको सदा विधिपूर्वक दूसरी अविपाकजा निर्जरा करनी चाहिए ॥ ५८ ॥ नवीन कर्मोंका संवर होनेपर उग्रतपोंके द्वारा निर्जरा किया जानेवाला कर्मरूप समस्त रज पलायमान हो जाता है क्योंकि नवीन जलके आगमन से रहित सरोवरका पुरातन जल सूर्यकी किरणोंके द्वारा सुखाये जानेपर ठहरता नहीं हैं । ५९ ॥ उत्कृष्ट तपके द्वारा तपाया गया जीव शीघ्र निर्मलताको प्राप्त होता है। अग्निके द्वारा भली भांति तपाये गये सुवर्ण पाषाणका मल कैसे ठहर सकता है ? अर्थात् नहीं ठहर सकता ॥ ६० ॥ यह निर्जरा भावना कही ।
१. मु० दुरवापाम् ।
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