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________________ अणुव्रतवर्णनम् परिणामोऽनुपरतवृत्यादिः कामतीत्राभिनिवेश इति । धन-धान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम् । परिग्रहविरमणव्रतस्य पञ्चातिक्रमा भवन्ति-क्षेत्र वास्तु - हिरण्य- सुवर्ण-धन-धान्य- दासी दास- कुप्यमिति । तत्र क्षेत्र शस्याधिकरणम्, वास्तु आगारम्, हिरण्यं रूप्यादिव्यवहारप्रयोजनम्, सुवर्ण विख्यातम्, धनं गवादि, धान्यं ब्रीह्यादि, दासीदासं मृत्यस्त्रीपुरुषवर्गः, कुप्यं क्षौमकार्पासकोशेयञ्चन्दनादि । एतेषु एतावानेव परिग्रहो मम, नातोऽन्यस्य इति परिच्छिन्नप्रमाणात् क्षेत्रवास्त्वादिविषयादतिरेकोऽतिलोभवशात्प्रमाणातिरेक इति । रात्रान्नपानखाद्यलेह्येभ्यश्चतुभ्यः सत्त्वानुकम्पया विरमणं रात्रिभोजनविरमणं षष्ठमणुव्रतम् । वधावसत्याच्चौर्याच्च कामाद् ग्रन्थान्निवर्तनम् । पञ्चधाऽणुव्रतं राज्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥ १०॥ इत्यव्रतवर्णनम् । 10 Jain Education International परिणामको और निरन्तर कामसेवनमें लगे रहनेको काम तीव्राभिनिवेश कहते है । धनधान्य क्षेत्र आदि परिग्रहका इच्छाके वशसे परिणाम करना यह गृहस्थका पाँचवाँ अणुव्रत है। इस परिग्रहपरिमाणव्रत के पाँच अतीचार इस प्रकार है- क्षेत्र वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दासी दास और कुप्य । धान्यकी उत्पत्ति के स्थानको क्षेत्र कहते है । रहनेके घरको वास्तु कहते है । चांदी के रुपया आदि सिक्के जिनसे लेन-देनका व्यवहार चलता हैं, हिरण्य कहलाते है | सुवर्ण तो प्रसिद्ध ही है। गाय-भैंस आदि पशुओंको धन कहते हैं। गेहूँ चावल आदिको धान्य कहते है । सेविका स्त्रीको दासी और सेवक पुरुषको दास कहते है । वस्त्र, कपास, कोशा, चन्दन, वर्तन आदिको कुप्य कहते है । इन पाँचों प्रकार के पदार्थोंमें 'इत्तना ही मेरे परिग्रह है, इससे अधिक या अन्य वस्तुका नहीं' इस प्रकार क्षेत्र वास्तु आदि विषयक स्वीकृत प्रमाणसे अति लोभवश अधिक रखकर ग्रहण किय गये परिमाणका उल्लंघन करना परिग्रह परिमाणव्रतके अतीचार है । प्राणियों पर अनुकम्पाके भावसे रात्रिमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकारके आहार करनेका त्याग करना सो रात्रिभोजनविरमण नामका छठा अणुव्रत है । जैसा कि कहा है-स्थूल हिंसासे, असत्यसे, काम सेवनसे और परिग्रहसे निवृत्त होना यह पाँच प्रकारका अणुव्रत है और रात्रि में भोजन नहीं करना यह छठा अणुव्रत हैं ॥ १० ॥ इस प्रकार अणुव्रतों का वर्णन समाप्त हुआ । २४१ 101 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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