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________________ २४० ... श्रावकाचार-संग्रह अप्रयुक्तेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानम् । विरुद्धं राज्यं विरुद्धराज्यम् । उचितन्यायादन्येन प्रकारेणादानं ग्रहणमतिक्रमः । तस्मिन् विरुद्धराज्ये योऽसावतिक्रमः स विरुद्धराज्यातिक्रमः । प्रस्थादि मानं तुलाघन्मानम् । एतेन न्यूनेनान्यस्मै देयमधिकेनात्मना ग्राह्यमित्येवमाविकटप्रयोगो होनाधिकमानोन्मानम् । कृत्रिमैहिरण्यादिभिर्वञ्चनापूर्वको व्यवहार: प्रतिरूपकव्यवहार इति। उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्नायाः सङ्गाद्विरतरतिविरताविरत इति चतुर्थमणुव्रतम्। स्ववारसन्तोषव्रतस्यातीचाराः पञ्च भवन्ति-पर विवाहकरणं इत्वरिकाऽपरिगृहीतागमनं इत्वरिकापरिगृहीतागमनं अनङ्गक्रीडा कामतीवाभिनिवेशश्चेति। तत्र सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयाद्विवहनं विवाहः परस्य विवाहकरणं परविवाहकरणम् । ज्ञानावरणक्षयोपशमादापादितकलागुणज्ञतया चारित्रमोहस्त्रीवेदोदयप्रकर्षादङ्गोपाङ्गवामोदयावष्टम्माच्च परपुरुषानेतीति इत्करिका या गणिकात्वेन वा पुंश्चलित्वेन वा परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता,तस्यां गमनमित्वरिकाऽपरिगृहीता गमनम् । या पुनरेकपुरुषभर्नुका सा परिगृहीता,तस्यांगमनमित्वारिकापरिगृहीतागमनम्। अगं प्रजननं योनिश्च तत्तो जघनादन्यत्रानेकविधप्रजननविकारेण रतिरनङ्गक्रीडा कामस्य प्रवद्धः प्रेरणा कराता है और तीसरे चोरी करनेवाले की अनुमोदना करता है, यह सब स्तेन प्रयोग है। जिसे चोरीके लिए प्रेरणा भी नहीं की है, ऐसे चोरके द्वारा लाये गये द्रव्यको ग्रहण करना तदाहृतादान है। विद्रोह या विप्लव युक्त राज्यको विरुद्धराज्य कहते है। उचित न्याय मार्गको छोडकर अन्य प्रकारसे द्रव्यको ग्रहण करना अतिक्रम कहलाता है । इस प्रकार विरुद्ध गज्यमें अतिक्रम विरुद्धराज्यातिक्रम है। (राज्यके नियमोंके विरुद्ध वस्तुको लाना-ले जाना और राज्य-करकी चोरी करना भी इसीके अन्तर्गत है। ) नापने के प्रस्थ आदिको मान कहते हैं और तोलनेके वाँट आदिको उन्मान कहते है । कम नाप-तोलके बाँटोंसे दूसरोंको देना और अधिक (भारी) ना - तोलके बाँटोसे स्वयं ग्रहण करना, इत्यादि छलमय कूट प्रयोग करना होनाधिकमानोन्मान है। कृत्रिम (बनावटी या मिलावट वाले) सुवर्णादिकके द्वारा वंचनापूर्वक व्यवहार करना प्रतिरूपक व्यवहार है। उपात्त (विवाहित) और अनुपात्त (अविवाहित) परस्त्रीके संगसे विरतरति होना अर्थात् उनके साथ काम सेवन नहीं करना और अपनी स्त्री सन्तोष धारण करना यह गृहस्थका विरताविरतरूप चौथा अणुव्रत है। इस स्वदारसन्तोषाणुव्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-परविवाहकरण इत्वरिकाऽपरिगृहीतागमन इत्वरिकापरिगृहीतागमन अनंगक्रीडा और कामतीब्राभिनिवेश । सातावेदनीय और चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे कन्याके पाणिग्रहको विवाह कहते है। अन्य पुरुषका विवाह करना परविवाहकरण नामका अतीचार हैं । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषसे प्राप्त हुए कलागुणको धारण करनेसे, चारित्रमोह-गत स्त्रीवेदके उदय-प्रकर्षसे और अंगोपांग नाम कर्मके उदयके साहाय्यसे जो पर-पुरुषोंके समीप जातीहै, उसे इत्वरिका कहते है । वेश्या होनेसे अथवा व्यभिचारिणी होनेसे पर-पुरुषोंके पास जानेवाली पति-रहित स्त्रीको इत्वरिका अपरिगहीता कहते हैं। उसमें गमन करना इत्वरिकाऽपरिगृहीतागमन है । जिस स्त्रीका एक पुरुष स्वामी है, वह परिगृहीता कहलाती है। ऐसी व्यभिचारिणी स्त्रीमें गमन करना इत्वरिका परिगृहीता गमन है । कामसेवनके अंग प्रजनन (लिंग) और योनि हैं। उनसे अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें अनेक प्रकारके प्रजनन विकारोंसे रति करना अनंगक्रीडा कहलाती हैं। कामसेवनके अति बढे हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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