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________________ २४२ श्रावकाचार-संग्रह शीलसप्तकवर्णनम् स्थवीयसी विरतिमभ्युपगतस्य श्रावकस्य व्रतविशेषो गुणवतत्रयं शिक्षाबतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते । दिग्विरतिः देशविरतिः अनर्थदण्डविरतिः सामायिकं प्रोषधोपवासः उपभोगपरिभोगपरिमाणं अतिथिसंविभागश्च । तत्र प्राची अपाची उवीची प्रतीची ऊध्र्व अधो विदिशश्चेति । तासां परिमाणं योजनादिभिः पर्वताविप्रसिद्धाभिज्ञानश्च ताश्च दुष्परिहारः क्षुद्रजन्तुभिराकुला अतस्ततो बहिर्न यास्यामीति निवृत्तिदिग्विरतिः । निरवशेषतो निवृत्ति कर्तुमशक्नुवतः शक्त्या प्राणिवधविरति प्रत्यागर्णस्यात्र प्राणनिमित्तं यात्रा भवतु. मा वा, सत्यपि प्रयोजनभूयस्त्वे परिमिताद्दिगवधेर्बहिर्न यास्यामीति प्रणिधानादहिंसाधणुव्रतधारिणोऽप्यस्य परिगणितादिगवधेर्बहिर्मनोवाक्काययोगैःकृतकारितानुमतविकल्पैहिसादिसर्वपापनिवृत्तिरिति महावतं भवति । दिग्विरमणवतस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-ऊर्ध्वातिक्रमः अधोऽतिक्रमः तिर्यगतिक्रमःक्षेत्रवृद्धिः स्मृत्यन्तराधानं चेति । तत्र पर्वतमरुद्भूम्यादीनामारोहणादू,तिक्रमः।कूपावतरणादिरधोऽतिक्रमः। भूमिबिल-गिरिदरीप्रवेशादिस्तिर्यगतिक्रमः । प्राग्दिशो योजनादिमिः परिच्छिद्य पुनर्लोभवशात्ततोऽ अब तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप सात शीलवतोंका वर्णन करते है-स्थायी विरतिभावको स्वीकार करनेवाले श्रावकके तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप जो व्रतविशेष धारण किये जाते है, उन्हें शीलसप्तक कहते है। इनके नाम इस प्रकार हैं-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति (ये तीन गुणव्रत है), सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागवत (ये चार शिक्षाव्रत है)। ___ इनमेंसे पहले दिग्विरति व्रतका वर्णन करते हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और चारों (ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य) विदिशाएँ, इन दशों दिशाओंका योजनादिकसे अथवा पर्वत नदी आदि प्रसिद्ध चिन्होंसे जीवन-पर्यन्तके लिए परिमाण कर और यह विचार कर कि 'ये सब दिशाएँ जिनका परिहार करना दुःसाध्य है, ऐसे छोटे सूक्ष्म जन्तुओंसे भरी हुई हैं, अतः इस ग्रहण की गई सीमासे बाहर मै नहीं जाऊँगा' ऐसा नियम कर दिशाओंकी निवृत्ति करनेको दिग्विरतिव्रत कहते हैं । पूर्णरूपसे हिंसादि पापोंकी निवत्ति करने के लिए असमर्थ गहस्थके अनुसार प्राणिधात-त्यागके प्रति उद्यत होनेपर प्राणोंकी रक्षाके लिए यात्रा अर्थात जीवन निर्वाह हो, अथवा मत होवे, भारी प्रयोजनके आ जानेपर भी मैपरिमाण की गई दिशाओंकी मर्यादासे बाहर नहीं जाऊँगा, इस प्रकारकी प्रतिज्ञासे अहिंसादि अणवनधारी भी इस श्रावकके परिगणित दिशाओंकी मर्यादासे बाहिर मन-वचन-कायसे और कृतकारित-अनुमोदनसे हिंसादि समस्त पापोंको पूर्ण निवृत्ति होती है, अतः वहाँकी अपेक्षा उसके अणुव्रत भी महावत कहलाते हैं। - इस दिग्विरमण व्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-ऊर्ध्वातिक्रम, अधोऽतिक्रम,तिर्यगतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान । पर्वत और मरुभूमि (आकाश) आदि उर्ध्व प्रदेशोंके आरोहणसे ऊर्ध्व-दिशाकी सीमाका उल्लंघन करना ऊर्ध्वातिक्रम है । कूप-वावडी आदि अधोभागमें उतरनेसे सीमाका उल्लंघन करना अधोऽतिक्रम है । भूमिके बिल और पर्वतकी कन्दरा आदिमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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