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________________ वसुनन्दि-: ५०१ भच्छाहणि पावहरि जिणहरि घंट रसंति । कुमुयाणंदणि तमहरणि छणजामिण ण हु मंति१९९ चिध' चमर छत्तई जिणहं दिण्णई लब्मइ रज्जु । अह पारोहहिं निगाह वडु वित्थरइ ण चोज्जु || जिणहरि लिहियई मंडियई लज्छि समीहिय होइ । पुण्णु महंतउ तासु फलु कहिवि कि 'सक्कइ कोइ ।। २०१ -श्रावकाचार जंबदीउ समोसग् णु णंदीसर लोयाणि । जिणवरभवणि लिहा वियई सयलहं दुक्खहं हाणि ॥ २०२ दिors वत्थ सुअज्जियहं दिव्वंवर लब्भंति । पाणिउ पेसिउ पउमिणिहि पउमइ देइ न भंति ॥ सारंभई व्हवणाइयहं जे सावज्ज भणति । दंसणु तेहि विणा सियउ इत्थु ण कायउ भंति || २०४ पुग्गलु जीवें सहु गणिय 'जो इच्छइ धणचाउ । इणि' सम्मत्ते तसु तणई किन सम्मतु वि जाउ ।। सम्मत्तं विणु वय विगय वयहं गयहं गउ धम्मू । धम्मे जंते सुक्खु गउ तें विणु निष्फलु जम्मु २०६ पुण्ण रासि ण्हवणाइयई पाउ लहुवि किउ तेण । विसकणियई बहु उवहिजल णउ दूसिज्जइ जेण || तें सम्मत महारयण हिययंचलि थिरु बंधि । तें सहु जहि जह जाहि जिय तह तह पावहि सिद्धि ॥२०८ arrear विहि जो करइ इच्छिय भोयणिबंधु। विक्कइ सुमणि वराडियइ सो जाणहु जाच्चंधू है) जैसे ग्रह और तारागणकी माला चन्द्रमासे सम्बद्ध हुई हो ॥ १९८॥ | जिनमन्दिर में बजताहुआ घंटा भव्यजनोंका उत्साह वर्धक एवं पाप-हारक होता है । पूर्णचन्द्रवालि रात्रि कुमुदोंको आनन्द देनेवाली और अन्धकारको हरनेवाली होती है ।। १९९ ।। जिनभगवान्‌को ध्वजा, चमर | और छत्र चढ़ाने से राज्य प्राप्त होना | यदि प्रारोहों (जटाओं) के निकलनेसे वटवृक्ष विस्तृत हो तो कोई आश्चर्य नही है |२००। " जिनमन्दिर में मांडने लिखनेसे मनोवांछित लक्ष्मी प्राप्त होती है, और महापुण्य होता है । उसके फलको कहते के लिए कोई भी समर्थ नहीं है । २०१ ॥ जम्बूद्वीप, समवशरण, नन्दीश्वर द्वीप और तीन लोकोंकी रचनाको जिनेंद्रभवनमें लिखवाने मे सकल दुखोंकी हानि होती हे । २०२ ।। सुआर्यिकाओं को वस्त्रदेनेसे दिव्य वस्त्र प्राप्त होते हैं । कमलिनियोंको पानी देनेपर वे कमलोंको देती हैं, इसमें भ्रान्ति नहीं हैं । २०३ || जो अभिषेकादिके समारम्भको सावद्य (पापयुक्त ) कहते है, उन्होंने सम्यग् - दर्शनका विनाश कर दिया, इसमें कोई भ्रान्ति नही हैं ॥ २००॥ जो पुद्गलको जीवके साथ गिनकर ( मानकर ) धनके त्यागकी इच्छा करता हैं, उसके इस प्रकारसे सम्यक्त्व माननेपर क्या उसके सम्यक्त्व उत्पन्न ह गया ? भावार्थ- जो जीव और दुद्गलकी एकता मानकर धनत्यागची इच्छा करता है, वह मिथ्यादृष्टि ही है, उसके धनत्यागसे कोई भी लाभ नही हैं ।। २०५ ॥ सम्यक्त्वके विना व्रत भी गये | व्रतोंके जानेसे धर्म गया और धर्मके जानेसे सुख भी गया । फिर उसके विना मनुष्यजन्मनिष्फल हैं ॥। २०६ || पुण्यकी राशिवाले अभिषेकादि कार्य में अभिषेक करनेवाले के द्वारा यदि अल्प पाप भी किया गया, तो विषको एक कणिकासे समुद्रका सर्व जल दूषित नही हो सकता ।।२०७।। अतएव सम्यक्त्वरूपी महारत्नको हृदयरुप अंचलमें स्थिर बाँध । उसके साथ हे जीव, तू जहां जहाँ जायगा, तहाँ तहाँ सिद्धि पायगर ।। २०८ । जो मनुष्य भोग-प्राप्तिकी इच्छासे ज्ञान और पूजन-विधान करता हैं, वह उत्तममणिको कीडियों में बेचता है, उसे जन्मान्ध जानो ॥ २०९॥ Jain Education International १ ब चिधई चमरई छत्तई वि । २ मण । ३ ब टि. यः पुमान् पुद्गलः (स्य) जीवेन सह ऐक्यं सन्यते बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिरेव । तल्य धनत्यानेन न किमपि । ४ ब ईदृशेन सम्यक्त्वेन । ब लहुक्किउ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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