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________________ ५०० श्रावकाचार-संग्रह वज्जई दिण्णई जिणहु जिय दालिद्दहु णासु । दुरिउ ण ढुक्कइ तहु णरहु लच्छिहु' होइ ण णासु ॥१८७ दीवई दिण्णई जिणवरहं मोहह होइ ण ठाउ । अह उववासहि रोहिणिहि सोउ विलयह जाउ । धूवउ खेवई जिणवरहं तसु पसरइ सोहाग । इत्थु म कायउ भंति करि तें पडिबद्धउ सांग ॥१८९ देइ जिणिदहं जो फलइ तसु इच्छियइं फलंति । भोयधरहं गय रुक्खडा सयल मणोरह दिति १९० जिणपयगयकुसुमंजलिहिं उत्तमसिय पंजोउ । सरगयरविकिरणावलिए णलििह लच्छिम होइ १९१ जिणपडिमई कारावियई संसारहं उतारु । गमणट्ठियह तरंडउ वि अह व ण पावइ पारु ।।१९२ जिणभवणइं कारावियई लब्भइ सम्गि विमाणु । अह टिक्कई आराइणई' होइ समीहिइ' ठाणु।। जो धवलावइ जिणभवणु तसु जसु कहिमि ण माइ । ससिकरणियरु सग्यमिलिउ जगु धवलणहं वसाइ ।।१९४ जो पइठावइ जिणवरहं तसु पसरइ जगि कित्ति । उवहिवेल छणससिगुणइं को वार इपसरति ।। आरत्तिउ दिण्णउ जिणहं उज्जोयइ सम्मत्तु । भुवणुमास इ सुरगिरिहिं सूरु पयाहिण किंतु ।। १९६ तिलयइं दिण्णइं जिणभवणि ५ जणि अणुराउ ण माइ । चंदकति चंदहं मिलिउ पाणिय दिण्ण ण ठाइ ॥१९७ चंदोवई दिण्णइं जिणहं मणिमंडियइ विसाल । अह संबंधा ससहरहं गहतारायणमाल ।।१९८ अगाध पानी हो जाता हैं ।।१८६।। हे जीव, जिनदेवको नैवेद्य चढानेसे दारिद्रयका नाश हो जाता है। उस मनुष्यके पास पाप नहीं ढूंकता और लक्ष्मीका भी नाश नहीं होता है ।।१८७।। जिनवरको दीप चढानेसे मोहको स्थान नहीं मिलता । तथा रोहिणीव्रतके उपवाससे शोक भी प्रलयको प्राप्त हो जाता हैं ॥१८८।। जो जिनवरके आगे धूप खेता है, उसका सौभाग्य फैलता है और उसने स्वर्गको बाँध लिया.इसमें कछ भी भ्रांति मत कर॥१८९।। जो जिनेन्द्रको फल चढाता हैं.उसको यथेच्छ फल प्राप्त होते है । भोगभूमिके कल्पवृक्ष उसके सब मनोरथोंको पूरा करते है ।।१९०। जिनदेवके चरणोंपर चढाई गई पुष्पांजलिसे उत्तम लक्ष्मीका संयोग होता हैं। देखो-सरोवरमें गई हुई सूर्यको किरणावलीसे कमलिनियोंमें लक्ष्मी प्राप्त होती हैं ।। १९१।। जिनप्रतिमा करानेसे जीव संसारके पार उतरता हैं । अथवा गमनके उद्यत पुरुषोंको जहाज क्या पार नहीं पहुंचाता हैं? पहुँचाता ही हैं ।।१९२।। जिन-भवनको बनवानेसे मनुष्योंको स्वर्गमें विमान प्राप्त होता हैं । तथा जिनभवनकी टीक (छाप) और आरास (पलस्तर) करनेसे समीहित स्थानकी प्राप्ति होती हैं ॥१९३।। जो जिन-भवनको सफेदी कराकर धवल करता है उसका यश कहीं भी नहीं समाता । शरद् ऋतुसे मिली हुई किरणोंका समूह समस्त जगत्को धवलित कर देता है ॥१९४। जो मनुष्य जिनवरकी प्रतिष्ठा करता हैं, उसकी कीत्ति जगत्में फैलती है । पूर्णमासीके चन्द्रके गुणोंसे प्रसारको प्राप्त होती हुई समुद्र की वेलाको कौन रोक सकता है ।। १९५।। जो जिनदेवकी आरती करता है, उसके सम्यक्त्वका उद्योत होता है। सुरगिरि (सुमेरु) की प्रदक्षिणा देता हुआ सूर्य समस्त भुवनको प्रकाशित करता हैं ।। १९६।। जिन भवनपर तिलक देनेसे अर्थात् शिखर पर कलशा चढानेसे जगत्में उसका अनुराग नहीं समाता जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रमाकी किरणोंसे मिलकर पानी देनेसे नहीं रुकता है । १९७।। जिन भगवान्को चढाये हुए मणि-मंडित विशाल चन्दोवा ( ऐसे प्रतीत होते १ म लच्छिहि। २ म आराणह । ३ म समाहिहि । ४ म पयाहि ण। ५ म जिगवरहं । ६ ब संबंधी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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