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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४९९ चामर ससह करधवल जसु चउसाठ पडंति । हरिसिय जिणपासट्टिया अह सच्चामर हंति।।१७६ छतई छण' ससिपंडर इं सुरण' णाय घरंति । विसहर सुरचकिहि महिय जिणपुंडरिय'हवंति ।। झुणि अक्खिय संपुष्णहल जीवासासणि' जासु । अमियसरिस हियमहुर गिर अह व ण वल्लह कासु ॥१७८ एह विहुइ जिणेस हं. हुव धम्म एण्ड्ड । वणसइ णयणाणंदयरि होइ वसन्तें मंड । १७९ एवं विहु जो जिणु गहइ वंछिउ सिज्झइ तासु । बीजे अहवा सिंचियइं खेत्तिय होइ ण कासु । १८० जो जिणु व्हावइ घय-पर्याह सुरहिं हाविज्जइ सोइ । सो पावइ जो जं करइ एह पसिद्ध उ लोइ । गयोएण जि जिणवरहं हाविय पुण्णु बहुत्तु । तेलहं बिदुवि विमलजलि को वारइ पसरंतु । १८२ जलधारा जिणपयगयउ रग्रहं पणासइ णामु । ससहराकरणकरालियहं तिमिरहु कित्तिउ थामु।।१८३ जो चच्चइ जिणु चंदणइ होइ सुरहि तस देहु । तिल्लें जह दीवहं गयइं उज्जोइज्जइ गेहु।। १८४ जिणु अच्चइ जो अवखहि तसु वरवंसय सूइ । अह विहियई पुयपंचमिहिं होइ वि चक्किविहइ ।। खुट्टइ भोउ ण तसु गहइ जो कुमुमहिं जिणणाहु । अह सरवरि पइसारिणए पाणि उ होइ अगाहु।। देवोंको हक्कारती है ।।१७५।। उन तीर्थकर देवके ऊपर चन्द्र किरणोंके समान धवल चौंसठ चमर ढुलते है । (वे मानों यह कह रहे है कि) जो हर्षित होकर जिनदेवके पास स्थित होते हैं,वे सच्चामर अर्थात् सच्चे देव हो जाते है ।।१७६।। पूर्णमासी के चन्द्र तुल्य तीन श्वेत छत्रोंको जिन भगवानके ऊपर देव, मनुष्य और नाग धारण करते हैं । (वे मानों यह प्रकट करते है कि भगवानके ऊपर छत्र ताननेवाले पुरुष) धरणेन्द्र, इन्द्र और चक्रवर्तीसे पूजित जिन पुण्डरीक तीर्थकर परमदेव होते हैं।॥१७७।। जिनकी दिव्यध्वनि (पुण्य पापके ) सम्पूर्ण फलोंको कहनेवाली और जीवोंको आश्वासन देनेवाली होती है । अथवा अमृतके सदृश और हृदयको मधुर लगनेवाली वाणी किसे प्यारी नहीं लगती हैं ।। १७८ः। जिनेश्वरदेवकी इस प्रकारकी विभूति धर्मसे ही होती हैं । नयनोंका आनन्द करनेवाली वनश्री वसन्तसे ही मण्डित होतो है।। १७९।। इस प्रकारके जिनदेवकी जो पूजा करता हैं, उसका वांछित अर्थ सिद्ध होता हैं । अथवा बीजके सींचने पर किसकी खेती अच्छा नहीं होती हे ॥१८०।। जो जिनदेबको घी और दूधसे नहलाता हैं, वह देवोंके द्वारा नहलाया जाता हैं। 'जों जैसा करता है, वह वैसा पाता है' यह उक्ति लोकमें प्रसिद्ध ही हे।। १८१।।सुगन्धित जलके द्वारा जिनवरको नहलानेसे बहुत पुण्य होता हैं । तेलकी एक बिन्दुको भी निर्मल जल में फैलनेसे कोन रोक सकता है ।।१८२।। जिनदेवके चरणों पर छोडी गई जलधारा पाप-रजका नाम तक नष्ट कर देती है। चंद्र, किरणोंसे करालित (विनष्ट ) तिमिरका वि तना सामर्थ्य हैं ।। १८३।। जो जिनदेवकी चन्दनसे पूजा करता है उसका शरीर सुगन्धित होता हैं | जसे कि दीपकम ड ले गये तेलसे घर प्रकाशित होता हैं ||१८ ॥ जो अक्षतोंसे जिनदेवको पूजता हैं, उसका उत्तम वंशमे जन्म होता है और श्रुतपचमीके पूजा-विध नसे चक्रवर्तीकी विभूति प्राप्त होती है ।।१८५।। जो पुष्पोंसे जिननाथ की पूजा करता हैं, उसके भोग कभी कम नहीं पडते । जैसे सरोवरमें नदीको सारिणी (नहर) के द्वारा १ पूणिमाचन्द्रवत । २ ब टि. धरणेन्द -इन्द्र-चक्रिमहिता अिनपुण्डरीकास्तीर्थकरपरमदेवा भवन्ति । ३ ब कथितसम्पूर्णफला जीवानाम श्वासिनी स्यात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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