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________________ ५०२ श्रावकाचार-संग्रह तें कम्मक्खउ मग्गि जिय जिम्मल बोहिसमाहि । ण्हवणदाणपूजाइयइं में सामयपइ जाहि ।।२१० पुण्णु पाउ जसु मणि ण समु तसु दुत्ता भवसिंधु । कणय-लोहणियलई जियहु कि कुहिं पय बंधु ।।२११ ण हु विग्गासिय कमलदलु ससरु स विदु सरेहु । वंछिज्जइ इय कप्पयरु कामिउ को संदेहु ॥६१२ हियकलिणि ससहरधवल सुद्धफलिहसंकास। भविया 'पडिम जिणेसरहुं तोडइ चउगइपास।।२१३ जासु हियइ असि आ उ सा पाउ ण ढुक्कइ ताहं । अह दावाणलु कि करइ पाणियगहिरठियाहं ।। जिय मंतई सत्तक्ख रइ'दुरियई दूर हु जति । अह सोहहं गुंजारियई हरिणउलई कहिं ठंति २१५ विणिसयइं असि आ उ सा जं वासरि फल विति । इक्कसएण वि तं णि फल सत्तक्ख रइं ण भंति ॥२१६ गरुड'सहावई परिणवइ रे जिय जाब हि मंति । ताव हि णरु विसघेरियउ उटावइ ण हु भंति ।। जिण गण देइ अचेयणु वि वंदिउ णिदिउ दोस्। इउ णियभावहं तणउ फलु जिणह ण रोसु ण तोसु ॥२१८ मणुयत्तणु दुल्लहु लहिवि भोयहं पेरिउ जेण। इंधणकज्जे कप्पयद्द मूलहो खंडिउ तेण ॥२१९ दुल्लहु लहिवि णरत्तयण विसयह तोसिउ जेण । पट्टोल्लइ"तग्गय थियहं सुरयणु फोडिउ तेण २२० इस लिए हे जीव, अभिषेक, दान, पूजादिसे कर्मोका क्षय,निर्मल बोधि और समाधि की माँग कर जिससे शाश्वत पदपर जा सको।।२१०॥जिसके मन में पुण्य और पाप समान नहीं है, उसे भवसिंध पार करना कठिण हैं । सोने और लोहे की बेङी क्या जीवके पाद-बन्धनको नहीं करती है ।।२११॥ कमलकी कणिकाकी परिधिमें अकारादि सोलह स्वरोंका, कणिकाके मध्य में रेफ और बिन्दुसहित इकारका, अर्थात 'हे' पदका और कमलके आठों पत्रोंपर कवर्गादि आठ बगकि अक्षरोंका विकास न करके, अर्थात ध्यान न करके जो इस लोकके मनोरथ पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्षको इच्छा करता हे, वह कामी है, इसमें क्या सन्देह है ॥२१२॥ हृदयकलममें ध्यान की गई चन्द्रके समान धवल और स्फटिकके समान शुद्ध जिनेश्बरकी प्रतिमा चतुर्गतिके पाशको तोड़ती है ॥२१३॥ जिसके हृदय में 'अ सि आ उ सा विद्यमान है, अर्थात् जो निस्तर इस पंचाक्षरी मन्त्र का जप करता है, उसके पास पाप नहीं ढूंकते हैं । जैसे गहरे पानी में बैठे हुए जीवोंका दावानल क्या कर सकता है ॥२१४॥ हे जीब, ‘णमो अरहताणं' इस सात अक्षरोंके मन्त्रसे सर्व पाप दूर भागते है । अथवा सिंहकी गुज्जारमे हरिण-कुल कहीं ठहर सकता हैं ।।२१५॥ 'अ सि आ उ सा'इस पंचाक्षरी मंत्रका प्रतिदिन दो सौ जप जो फल देता हैं, वही फल णमो अरहताणं'इस सप्ताक्षरी मंत्रको एक सौ जप देता है, इसमें भ्रान्ति नही है ।।२१६।। हे जीव, जब मन्त्र-वेत्ता गरुडस्वभावसे परिणत होता हे, तब वह उसीसमय विषसे मूच्छित मनुष्यको उठा देता हैं,इसमे भ्रान्ति नही हे ।।२१७॥वंदना की गई अचेचन भी जिन-प्रतिमा गुणको और निन्दा की गई दोषको देती है यह अपने भावोंका ही फल हैं । जिनभगवान्के तो न रोष हैं और न तोष ।।२१८॥ दुर्लभ मनुष्यपना पाकर जिसने उसे भोगोंमे लगाया, उसने इंधनके लिए कल्पवृक्षको जड़-मूलसे काट डाला ॥२१९।।दुर्लभ नर जन्म पाकर जिसने विषयोंमें सन्तोष माना, उसने तागा (धागा) के लिए पट (वस्त्र) को फाङा १ म भाइय । २ ब टि. णमो अरहताणं । ३ म गरुडहं भा वइं । ४ म- घारियउ | ५ म झ पट्टोलय । ६ ब टि. हीरदवरकनिमित्तं सूरत्न स पूमान स्फेटति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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