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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३१५ यस्मानित्यानित्यः कावियोगे निपोड्यते जीवः । तस्मादुक्ता हिंसा प्रचुरकलिकवन्धवृद्धिकरी॥२८ देवातिथिमन्त्रौषधिपित्रादिनिमित्ततोऽपि सम्पन्ना। हिंसाऽऽधत्ते नरके किं पुनरिह साऽन्यथा विहिता ॥ २९ आत्मवधो जीववधस्तस्य च रक्षाऽऽत्मनो भवति रक्षा। आत्मा न हि हन्तव्यस्तस्य वधस्तेन मोक्तव्यः ॥ ३० सर्वा विरतिः कार्या विशेषयित्वाऽतिचारमीतेन । पौर्वापर्यं दृष्ट्वा सूत्रार्थं तत्वतो बुद्ध्वा ।। ३१ शक्त्यनुसारेण बुर्धविरतिः सर्वाऽपि युज्यते कत्तुंम् । तामन्यथा दधानो भङ्गं याति प्रतिज्ञायाः॥३२ केचिद्वदन्ति मूढा हन्तव्या जीवघातिनो जीवाः । परजीवरक्षणार्थ धर्मार्थ पापनाशार्थम् ।। ३३ युक्तं तन्नैवं सति हिलत्वात्प्राणिनामशेषाणाम् । हिंसायाः कः शक्तो निषेधने जायमानायाः ।। ३४ धर्मोहिसाहेतुहिंसातो जायते कथं तथ्यः । न हि शालिः शालिभवः कोद्रवतो जायते जातु ॥ ३५ दूसरेके द्वारा चलाये जाने पर भी फल नहीं करता हैं ॥२७॥ भावार्थ-जीवको सर्वथा नित्य माननेपर किसी के द्वारा घात भी किया जाय, तो वह मर नहीं सकता हैं, अतः जीवकी हिंसा संभव ही नहीं। तथा सर्वथा अनित्य एवं क्षण-विनश्वर मानने पर जब वह प्रति समय स्वयं ही विनष्ट हो रहा हैं, तब उसके मारनेपर भी दूसरेको हिंसाका फल नहीं मिलेगा। अतः जीवको सर्वथा नित्य और अनित्य मानना युक्ति संगत नहीं हैं । किन्तु यत: कायके वियोग होनेपर जीव पीडाको प्राप्त होता हैं, अत: उसे कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानना चाहिए। अर्थात् द्रव्यको अपेक्षा वह नित्य हैं और पर्यायका वियोग होता है अत: अनित्य हैं । अतएव हिंसाको प्रत्र र पाप-बन्धकी वृद्धि करने वाली कहा गया है ।।२८।। जब देवता, अतिथि, मंत्र, औषधि और पितर आदिके निमित्तसे भी की गई हिंसा जीवको नरकमें ले जाती है, तब अन्य प्रकारसे की गई हिंसा क्या उसे नरकमें नहीं पहुँचायगी? अर्थात् किसी भी प्रकारसे की गई हिंसा जीवको नरकमें ले ही जाती है ।।२९।। किसी भी जीवका वध करना आत्म-वध है और अन्य जीवकी रक्षा करन' आत्म-रक्षा है यतः आत्म-वध करना योग्य नहीं है, अतः पराये जीवका घात छोडना ही चाहिए ॥३०॥ इस लिए अतीचारके भयसे डरने वाले गृहस्थको पूर्वापर स्थितिको देखकर तथा आगमके अर्थको तत्त्वरूपसे जानकर सर्व-प्रकारकी हिंसाका विशेष रूपसे त्याग करना चाहिए ।।३१।। ज्ञानी जनोंकी शक्तिके अनुसार सम्पूर्ण हिंसाका त्याग करना योग्य है। जो अन्यथा अर्थात् शक्तिके विपरीत हिंसाका त्याग करते हैं, वे प्रतिज्ञाके भंगको प्राप्त होते हैं ।।३२॥ कितने ही मूढ कहते है कि अन्य जीवोंकी रक्षाके लिए. धर्म उपार्जनके लिए और पापके नाशके लिए जीवोंके घात करनेवाले प्राणियोंको मार देना चाहिए ।।३३।। किन्तु उनका यह कथन योग्य नहीं है, क्योंकि इस प्रकार समस्त प्राणो हो हिंसक हो जायेंगे, फिर उनकी की जानेवाली हिंसाको रोकने में कौन समर्थ होगा? ।।३४॥ भावार्थ-यदि यह नियम मान लिया जाय कि जो अन्यको हिंसा करता हैं, वह मारनेके योग्य हैं, या उसके मारनेसे अन्य जीवकी रक्षा, धर्मका उपार्जन और पापका विनाश होता हैं, तो जो मनष्य हिंसक सिंह आदिको मारेगा, वह उसको मारनेवाला होनेसे स्वयं हिंसक हो जाता है अतः वह भी मारने योग्य सिद्ध होता हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर सभी प्राणी हिंसक बनते जावेंगे। फिर उन सबकी हिंसाका निषेध कैसे किया जा सकेगा? अत: जीवघाती प्राणी मार देना चाहिए, यह कथन युक्ति संगत नहीं हैं । सत्य धर्म तो अहिंसा-हेतुक है, वह हिंसासे कैसे हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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