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________________ ३१४ अमितगतिकृतः श्रावकाचार त्रिविधा त्रिविधेन मता बिरतिहिंसादितो गृहस्थानाम् । त्रिविधा त्रिविधेन पुनर्गृहचारकतो निवृत्तानाम् ।। १९ atraguोरभेदो येषामैकान्तिको मतः शास्त्रे । कार्याविनाशे तेषां जीवविनाशः कथं वार्यः ॥ २० आत्मशरीरविभेदं वदन्ति ये सर्वथा गतविवेकाः । कायवधे हन्त कथं तेषां सञ्जायते हिंसा ।। २१ मिन्नाभिन्नस्य पुनः पीडा सम्पद्यते तरां घोरा । देहवियोगे यस्मात्तस्मादनिवारिता हिंसा ।। २२ तत्पर्यायविनाशो दुःखोत्पत्तिः परश्च संक्लेशः । यः सा हिंसा सद्भिर्वर्जयितव्या प्रयत्नेन ॥ २३ प्राणी प्रमादकलितः प्राणव्यपरोपणं यदाधत्ते । सा हिंसाऽकथि दक्षैर्भववृक्षनिषेकजलधारा ।। २४ त्रियतां मा मृत जीवः प्रमादबहुलस्य निश्चिता हिंसा । प्राणव्यपरोपेऽपि प्रमादहीनस्य सा नास्ति २५ यो नित्योऽपरिणामी तस्य न जीवस्य जायते हिसा न हि शक्यते निहन्तुं केनापि कदाचनाकाशम् ॥२६ क्षणिको यो व्ययमानः क्रियमाणा तस्य निष्फला हिंसा । चलमानः पवमानो न चाल्यमानः फलं कुरुते ॥। २७ विनाश करता हैं । और प्रत्येक जैन सर्व हिंसाके त्यागका भाव रखता हैं, किन्तु स्थाबर हिंसाके छोडनेकी असमर्थता होनेसे यतः जैन लोग त्रस - हिंसाका त्याग करते है, अत: उनके द्वारा स्थावर जीवघातकी अनुमोदना कैसे की गई हो सकती है ? अर्थात् वे स्थावर जीवोंकी अनुमोदना के दोष भागी नहीं होते हैं ॥ १८ ॥ | गृहस्थोंके हिंसादि पापोंसे निवृत्ति कृत और कारितकी मन वचन काय इन तीन योगोंसे होती हैं । किन्तु गृहाचारसे निवृत्त पुरुषोंके कृत कारित और अनुमोदनाकी मन वचन कायसे हिंसादि पापोंकी निवृत्ति होती हैं ।। १९ । । भावार्थ - गृह में रहने वालोंकी कृषि आदि हिंसा के कार्यों में अनुमोदना होती रहती है, अतः उन्हें हिंसाका कृत और कारितसे त्यागी जानना चाहिए। किन्तु गृहाचारसे निवृत्त पुरुषोंकी नव कोटी - विशुद्ध हिंसादिनिवृत्ति होती हैं, ऐसा जानना चाहिए। जिन अन्यमतावलम्बियों के शास्त्रमें जीव और शरीरम एकान्तरूपसे अभेद माना गया हैं, उनके मतानुसार शरीरके विनाश होनेपर जीवका विनाश कैसे रोका जा सकता है | २० || इसी प्रकार जो विवेक-रहित पुरुष जीव और शरीर में सर्वथा भेद मानते हैं, उनके मतानुसार कायका वध होनेपर जीवोंकी हिंसा कैसे हो सकती है, यह आश्चर्य की बात हैं ||२१||किन्तु जो शरीरसे आत्माको कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानते हैं, उन जैनोंके मतानुसार तो देहके वियोग होनेपर यतः घोर पीडा प्राप्त होती है, अतः हिंसा अनिवार्य रूपसे होती ही है ।। २२|| इस जीवकी वर्तमान पर्यायका विनाश होनेपर दुःख की उत्पत्ति होती हैं और परम संक्लेश भी होता हैं । अतः सज्जनोंको प्रयत्नके साथ हिंसाका परित्याग करना चाहिए ||२३|| जब प्रमाद संयुक्त कोई प्राणी किसीके या अपने प्राणोंका घात करता है, तब शास्त्रों में निपुण पुरुषोंने संसार वृक्षको सींचनेके लिए जल धाराके समान उसे हिंसा कहा है ।। २४ ।। प्रमाद-बहुल जीवके द्वारा प्राणी मरे, अथवा नहीं मरे, उसके हिंसा निश्चित हैं किन्तु प्रमादसे रहित जीवके उसके द्वारा किसी के प्राण घात हो जानेपर भी हिंसा नहीं है ॥२५॥ जो सांख्यमती जीवको नित्य और अपरिणामी मानते हैं उनके मतानुसार जीवकी हिंसा नहीं होती है। क्योंकि कभी भी किसीके द्वारा आकाश विनष्ट नहीं किया जा सकता हैं ॥२६॥ बौद्धमती जीवको सर्वथा क्षणिक और प्रति समय व्ययस्वभावी मानते है, उनके मत में की गई भी हिंसा निष्फल है अर्थात् फल नहीं देती हैं । जैसे कि स्वयं चलता हुआ पवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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