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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३१३ सम्यक्त्वरत्नभषो मन्दीकृतसकलविषयकृतगद्धिः । एकादशगुणवर्ती निगद्यते श्रावकः परमः ॥ ११ संरम्भसमारम्भारम्भर्योगकृतकारितानुमतैः । सकषायैरभ्यस्तैस्तरसा सम्पद्यते हिंसा । १२ त्रित्रित्रिचतुःसंख्यैः संरम्भाद्यैः परस्परं गणितैः । अष्टोत्तरशतभेदा हिंसा सम्पद्यते नियतम् ॥ १३ जीवत्राणेन विना ब्रतानि कर्माणि नो निरस्यन्ति । चन्द्रेण विना ऋक्षन हन्यन्ते तिमिरजालानि ||१४ तिष्ठन्ति व्रतनियमानाहिंसामन्तरेण सुखजनकाः । पृथिवीं न विना दृष्टास्तिष्ठन्तः पर्वता: क्वापि१५ निघ्नानेनाहिसामा-माऽऽधारा निपात्यते नरके । स्वाधारांनहि शाखां छिन्नानः पतति कि भमौ।। १६ समतो विरताविरतः स्वल्पकषायो विवेकपरमनिधिः । रक्षति यस्त्रसदशकं प्रणिहन्ति स्थावरचतुष्कम् ।। १७ सर्वविनाशी जीवस्त्रसहननं त्यज्यते यतो जनैः । स्थावरहननानुमतिस्ततः कृता तैः कथं भवति ॥ १८ सपारसे भयभीत है, सम्यक्त्वरत्नसे विभूषित है, सर्व इन्द्रियोंके विषयोंमें जिसकी गद्धि मन्द हो गई है, ऐसा ग्यारह प्रतिमारूप गुणोंका धारक परम श्रावक कहा जाता हैं ।।९-११।। गृहस्थके एक सौ आठ भेदवाली हिंसा नियमसे होती रहती हैं । वे एक सौ आठ भेद इस प्रकारसे होते हैंसंरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप तीन प्रकारकी हिंसा मन वचन कायरूप तीन योगोंसे, कृत कारित और अनुमोदनारूप तीन प्रकारोंसे तथा क्रोध मान माया और लोभ रूप चार कषायोंसे निरन्तर होती रहती हैं। इनका परस्पर गुणा करने पर हिंसाके एक सौ आट भेद हो जाते है ॥१२-१३।। भावार्थ-हिंसा करनेका विचार संरम्भ कहलाता है. हिंसाके उपकरण आदिके जुटानेको समारम्भ कहते है और हिंसा प्रारम्भ करनेको आरम्भ कहते हैं । ये तीनों ही कार्य मन वचन और काय इन तीनों योगोसे किये जाते है, अत: उक्त तीनोंका इन तीन योगोंसे गुणा करने पर नौ ( ३४३=९) भेद हो जाते हैं। पुनः ये नवों ही कार्य स्वयं करे, दूसरोंसे करावे और दूसरोंको करते हुए देखक र उनकी अनुमोदना करे तो (९४३-२७) सत्ताईस भेद हो जाते है। यह सत्ताईस भेदरूप हिंसा क्रोधसे भी होती हैं, मानसे भी होती हैं.मायासे भी होती है और लोभ कषायसे भी होती है । अत: उक्त सत्ताईस भेदोंका इन चार कषायोंसे गुणा करने पर (२७४४=१०८) एक सौ आठ भेद हो जाते हैं । इन एक सौ आठ प्रकारोंसे जीव-हिंसाका पाप सदा लगता रहता हैं। अतः धर्मधारणके इच्छुक श्रावकोंको उक्त एक सौ आठ प्रकारसे त्रस हिंस का त्याग करना चाहिए तभी उसका अहिंसाणवत निर्दोष पल सकता हैं। जीवोंकी रक्ष के विना व्रतें कर्मोका विनाश नहीं कर सकते है । जैसे कि चन्द्र के विना नक्षत्र अन्धकारके जाल को नहीं नष्ट कर पाते हैं ।।१४।। अहिंसाके विना व्रत-नियमादिक सुखके उत्पादक नहीं होते हैं। जैसे कि पृथिवीके बिना पर्वत कहीं पर भी ठहरे हुए नहीं दिखाई देते हैं ।।१५।। आत्म-गुणोंकी आधारभूत अहिंसाको विनाश करने वाला पुरुष अपनी आत्माको नरकमें गिराता हैं । अपनी आधारभूत शाखाको छेदनेवाला पुरुष क्या भूमि पर नहीं 'गरता हैं ।।१६।।। जो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय,मज्ञी पंचेन्द्रिय,असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्तरूप दश भेद वाले त्रसोंके तथा बादरसूक्ष्म एकेन्द्रियोंके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद रूप चार प्रकारके स्थावरोंके प्राणियोंके हितकी रक्षा करता हैं, अत्यल्प कषाय वाला है और परम विवेकका निधान है, वह पुरुष विरताविरत श्रावक माना गया हैं ।।१७।। यहाँ पर कोई आशंका करता है कि केवल त्रस हिंसाके त्यागका उपदेश देकर गृहस्थको स्थावर हिंसाकी अनुमोदनाका दोष प्राप्त होता है? उसका परिहार करते हुए आचार्य कहते हैं कि जीव साधारणतः सर्व जीवोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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