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________________ ३१२ श्रावकाचार-संग्रह षष्ठः परिच्छेदः मद्यादिभ्यो विरतैर्ब्रतानि कार्याणि शक्तितो भव्यैः । द्वादश तरसाच्छेत्तुं शस्त्राणि शितानि भववृक्षम् ॥ १ अणुगुणशिक्षाद्यानि व्रतानि गृहमेधिनां निगद्यन्ते । पञ्चत्रिचतुः संख्यासहितानि द्वादश प्राज्ञैः ॥ २ हिंसाऽसत्य स्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिरूपाणि । ज्ञेयान्यणुव्रतानि स्थूलानि भवन्ति पञ्चात्र ॥ ३ द्वेधा जीवा जैनैर्मतास्त्र सस्थाबरप्रभेदेन । तत्र त्रसरक्षायां तदुच्यतेऽणुव्रतं प्रथमम् ४ स्थावरघाती जीवस्त्रससंरक्षी विशुद्धपरिणामः । योऽक्षविषयानिवृत्तः स संयतासंयतो ज्ञेयः ।। ५ हिंसा द्वेधा प्रोक्ताssरम्मानारम्भजत्वतों दक्षैः । गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि त्रायते तां च ॥ ६ गृहवाससेवनरतो मन्दकषायप्रवर्तितारम्भः । आरम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतम् ॥ ७ शमिताद्याष्टकषायः प्रवर्तते यः परत्र सर्वत्र । निन्दागर्हाविष्टः स संयमासंयमं धत्ते ॥ ८ कामासूयामायामत्सर वैशून्यदन्यमदहीनः । धीरः प्रसन्नचित्तः प्रियंवदो वत्सलः कुशलः ।। ९ यादे टिष्टो गुरुचरणाराधनोद्यतमनीषः । जिनवचनतोयधीतस्वान्तकलङ्को भवविमीरुः ।। १० मद्य-मांसादिसे विरक्त भव्य पुरुषोंको चाहिए कि वे संसार वृक्षको वेगसे छेदने के लिए तीक्ष्ण शस्त्रके समान बारह व्रतोंकों अपनी शक्तिके अनुसार धारण करें ||१|| ज्ञानियोंने पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकारकी संख्यावाले बारह व्रत गृहस्थोंके कहे है ||२|| स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापोंकी निवृत्तिरूप पाँच अणुव्रत जानने योग्य है || ३ || अब आचार्य सर्व प्रथम अहिंसाणुव्रतका वर्णन करते हैं-जैनोंने त्रस और स्थावरके भेदसे जीव दो प्रकारके माने है । उनमें से द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंकी रक्षा करने पर प्रथम अणुव्रत होता हैं ||४|| जो पुरुष स्थावर पृथिवीकायिकादि जीवोंका घात करता हुआ भी जीवोंका संरक्षण करता हैं, विशुद्धपरिणाम वाला हैं और इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्त हैं, उसे संयतासंयत श्रावक जानना चाहिए ||५|| जैन शास्त्रोंमें दक्ष पुरुषोंने आरम्भजा और अनारम्भजा के भेदसे हिंसा दो प्रकारकी कही है। जो मनुष्य गृहवाससे निवृत्त होता है, वह दोनों ही प्रकारकी हिंसाको बचाता है । किन्तु जो गृहवासके सेवनमें निरत है, मन्दकषायी है, आरम्भ में प्रवृत्त है, वह निश्चयसे आरम्भजा हिंसाकी रक्षा करने में समर्थ नहीं है | १६ - ७॥ भावार्थ - खान-पान और व्यापार आदिमें होने वाली हिंसाको आरम्भजा हिंसा कहते है । तथा संकल्प पूर्वक की जानेवाली हिंसाको अनारम्भजा या सांकल्पिकी हिंसा कहते है । गृहत्यागी साधु दोनों ही प्रकारकी हिंसाका त्यागी होता है, किन्तु गृहवासी श्रावक केवल सांकल्पिकी हिंसाका ही त्यागी होता है, क्योंकि अपन और अपने कुटुम्ब निर्वाहके लिए उसे कृषि, व्यापार आदिके आरम्भको करना ही पडता है । जिसकी अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ये आदिकी आठ कषाय शान्त हो गई है, और जो सभी लौकिक और पारलौकिक कार्यों में अपनी निन्दा और गर्हासे युक्त होकर प्रवृत्ति करता है, वह पुरुष सयमासंयमको धारण करता है | ८|| इस संयमासंयमका धारक पुरुष काम, असूया ( डाह - ईर्ष्या), माया, मत्सर, पैशुन्य, दैन्य और मदसे रहित होता है, धीर वीर होता है, सदा प्रसन्नचित्त रहता है, प्रिय वचन बोलता हैं, सर्वके साथ वात्सल्य भाव रखता है, धर्म - कार्य में कुशल होता है, हेय और उपादेयका जानकार होता है, गुरुजनोंके चरणोंकी आराधनायें जिसकी बुद्धि उद्यत रहती है, जिनवचनरूप जलसे जिसने अपने हृदय के कलंकको धो डाला है, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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