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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः क्षीरमूरूहफलानि मुञ्जते चित्रजीवनिहितानि येऽधमाः। जन्मसागरनिपातकारणं पातकं किमिह ते न कुर्वते ।। ६९ असंख्यजीवस्य विधातवत्तिभिर्न धीवरैरस्ति समं समानता। अनन्तजीवव्यपरोपकारिणामुदुम्बराहारविलोलचेतसाम् ॥ ७० ये खादन्ति प्राणिवर्ग विचित्रं दृष्ट्वा पञ्चोदुम्बराणां फलानि । श्वभ्रावासं यान्ति ते घोरदुःखं कि निस्त्रिशैः प्राप्यते नव दुःखम् ।। ७१ अघप्रदायोनि विचिन्त्य धर्मधीरुदुम्बराणां न फलानि वल्भते। विधातमिष्टे सुखदे प्रयोजने करोति कस्तद्विपरीतमुत्तमः ।। ७२ आदावेव स्फुट मिह गुणा निर्मला धारणीया, पापध्वंसि व्रतमपमलं कुर्वता श्रावकीयम् । कत्तुं शक्यं स्थिरगुरुभरं मन्दिरं गर्तपूर, न स्थेयोभिर्दृढतममृते निमितं ग्रावजालैः ।। ७३ दातुं दक्षः सुरतरुरिव प्रार्थनीयं जनानां चित्ते येषामिति गुणगणो निश्चलत्वं बिति । भक्त्वा सौख्यं भवनमहितं चिन्तितावाप्तभोगं, ते निर्बाधाममितगनय: श्रेयसी यान्ति लक्ष्मीम् ॥७४ इत्यमितगति कृतश्रावकाचारे पञ्चमः परिच्छेदः शुद्ध मानस वाले मनुष्य नहीं खाते हैं ॥६८॥ जो अधम पुरुष क्षीरी वृक्षोंसे उत्पन्न हुए और नाना प्रकारके जीवोंसे भरे हुए इन उदुम्बर फलोंको खाते हैं, वे संसार-सागरमें निपातके कारणभूत कौनसे पापको इस लोकमें संचय नहीं करते हैं? अर्थात् सभी पापोंका संचय करते है ॥६९॥ अनन्त जीवोंका घात करने वाले उदुम्बर फलोंके भक्षणकी लालसा रखनेवाले पुरुषोंकी समानता तो असंख्य जीवोंके मारनेकी भाजीविकावाले धीवरोंके साथ भी नहीं हैं ॥७०॥जो पुरुष पंच उदुम्बर फलोंके नाना प्रकारके प्राणी वर्गको देखकर भी उन्हें खाते है, वे घोर दु:खवाले नारकावासको प्राप्त होते हैं । सो ठीक ही है, क्योंकि निर्दयी पुरुष कौनसे दुःखोंको नहीं पाते? सभी दुःखोंको पाते है ।।७।। वर्ममें जिसकी बुद्धि है, ऐसा पुरुष पापको देने वाले फलोंको विचार करके उदुम्बरोंके फलोंको नहीं खाते हैं । ऐसा कौन उत्तम पुरुष है, जो कि अपने सुखदायक इष्ट प्रयोजनको सिद्ध करने के लिए उससे विपरीत कार्यको करेगा? कोई नहीं करेगा ।।७२।। इस लोकमें पापोंका ध्वंस करनेवाले, निर्मल श्रावकोंके व्रतोंको धारण करने वाले गृहस्थोंको ये उपर्युक्त निर्मल मूल गुण प्रारम्भ में ही धारण करना चाहिए । जैसे स्थिर और गुरुभारको धारण करने में समर्थ ऐसे मन्दिरकी नींव सुदृढ पाषाण-समूहके द्वारा पूरे किये विना अतिदृढ भवन निर्माण नहीं किया जा सकता है ।।७३।। याचक जनोंको कल्प वृक्षके समान मनोवांछित वस्तुओंके देने में समर्थ यह उपयुक्त मूलगुणोंका समूह जिन श्रावकोंके हृदयमें निश्चलताको धारण करता है, वे मनुष्य संसारपूज्य मन चिन्तित भोगवाले सुखोंको भोगकर अमित ज्ञानके धारक होते हुए सर्व बाधाओंसे रहित नैःश्रेयसी मुक्ति लक्ष्मीको प्राप्त होते है ।।७४।। इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें पंचम परिच्छेद समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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