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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन चर्या तु देवतार्थ वा मन्त्रसिद्धयर्थमे. वा । औषधाहारवलप्त्यै वा न हिस्यामीति चेष्टितम्॥१४७ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चितविधीयते । पश्चाच्चामालयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्शनम् ॥१४८ चर्येषा गहिणां प्रोवता जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयात्मशोधनम्।।१४९ त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनाहद्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्याग्निराकृतिः ॥ १५. चतुर्णामाम णां च शद्धिः स्यादाहते मते । चातुराश्रम्यन्येषामविचारितसुन्दरम् ।। १५१ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षकः । इत्याश्रमास्तु जनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ।। १.२ ज्ञातव्याः स्युः प्रपञ्चेन सान्तर्भेदाः पृथग्विधाः । ग्रन्यगौरवभीत्या तु नातेषां प्रपञ्चना ॥१५३ सद्गृहित्वमिदं ज्ञेयं गुणैरात्मोपबृंहणम् । पारिवाज्यमितो वक्ष्ये सुविशुद्ध क्रियान्तरम् ॥ १५४ इतिसद्गृहित्वम् । गार्हस्थ्यमनुपाल्यवं गृहवासाद विरज्यत: । यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्षते ।। १५५ पारिवाज्यं पारिवाजो भावो निर्वाणदीक्षणम् । तत्र निर्ममता बत्त्या जातरूपस्य धारणम्॥१५६ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्नग्रहांशके । निग्रंथाचार्यमाश्रित्य दीक्षा ग्राह्या मुमुक्षुणा ।। १५७ विशद्धकुलगोत्रस्य सद्वत्तस्य वपुष्मतः । दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः ।। १५८ ग्रहोपरागग्रहणं परिवेषेन्द्र चापयोः । वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे ॥ १५९ का पक्ष कहलाता हैं ।।१४६।। देवताके लिए या मंत्रसिद्धिके लिए अथवा औषधि या आहार निर्माण के लिए मैं किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करूँगा,ऐसी प्रतिज्ञाकार अहिंसक आचरण करनेको चर्या कहते हैं॥१४७।। इस प्रतिज्ञामें यदि इच्छाके न रहने पर भी प्रमादसे दोष लग जावे,तो प्रायश्चित्तसे. उसकी शुद्धि की जाती हैं। पश्चात् पुत्रपर अपने सर्व कुटुम्बका भार छोडकर गृहका त्याग किया जाता है ।।१४८।। यह गृहस्थोंकी चर्या कही । जीवनके अन्त में देह,आहार और सर्व प्रकारकी इच्छाओंका त्यागकर ध्यानकी शुद्धि-द्वारा आत्मशोधन करनेको साधन कहते हैं ॥१४९।। पक्ष, चर्मा और साधन इन तीनोंमें अर्हन्मतानुयायी द्विजोंका हिंसाके साथ संस्पर्श भी नहीं होताहैं,इसप्रकार हमारे जैन पक्षपर लगाये गये दोषों का निराकरण हो जाता हैं।। १५०।। चारों आश्रमोंकी शुद्धिता भी आर्हतमतमें ही है । अन्य लोगोंकी चतुराश्रमव्यवस्था तो अविचारितरम्य है,अर्थात् जब तक उसपर विचार नहीं किया जाता,तब तक ही सुन्दर प्रतीत होती है ।१५१।। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक, ये जैनोंके चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धिसे प्राप्त होते हैं ।। १५२॥ ये चारों ही आश्रम अपने-अपने अन्तर्भेदोंसे अनेक प्रकारके है,उनका विस्तारके साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, किन्तु ग्रन्थ-गौरवके भयसे यहाँ उनका निरूपण नहीं किया जा रहा हैं ।।१५३।। इसप्रकार सद्-गुणोंके द्वारा आत्माकी वृद्धि करना यह सद्-गृहित्व क्रिया हैं । अब इससे आगे परिव्राज्य नामकी अति विशुद्ध अन्य क्रिया को कहते हैं ॥१५४॥ यह दूसरी सद्गुहित्व क्रिया हैं। उपर्युक्त प्रकारसे गृहस्थ धर्मका विधिवत् परिपालन करके गृहवाससे विरक्त होनेवाले श्रावकका जो दीक्षाग्रहण करना है, वह पारिव्राज्य क्रिया है ॥ १५५ ॥ परिव्राट् (गृहत्यागी) के निर्वाणदीक्षारूप भावको पारिव्राज्य कहते है । इस पारिवाज्यक्रियामें निर्ममत्व वृत्तिसे जातरूप दिगम्बर वेषको धारण किया जाता है ॥१५६।। मुमुक्षु श्रावकको शुभ तिथि,शुभ नक्षत्र,शुभ योग,शुभ लग्न और शुभ ग्रहांश (मुहूर्त) मे निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकरके दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ॥१५७॥ जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है,चरित्र उत्तम है,शरीर सुदृढ है,मुख सुन्दर है और जिसकी बुद्धि उत्तम है,ऐसे पुरुषके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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