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________________ ४५४ श्रावकाचार-संग्रह आरम्भनिवृत्तप्रतिमा जं किचि गिहारंभ बहु थोग' वा सया विवज्जेइ । आरंभणियत्तमई सो अट्टम सावओ भणिओ ॥ २९८ (१) परिग्रहत्यागप्रतिमा मोत्तूण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो ।। २९९ (२) अनुमतित्यागप्रतिमा पुट्ठो वाऽपुट्ठो वा णियगेहि परेहि च सगिहकज्जमि। - अणुमणणं जो ण कुणइ वियाण सो सावओ दसमो ।। ३०० (३) उद्दिष्टत्यागप्रतिमा एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो । वत्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ ।। ३०१ (४) *धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो। ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ।। धारी ब्रह्मचारी श्रावक है ।। २९७ ।। जो कुछ भी थोडा या बहुत गहसम्बन्धी आरम्भ होता है, उसे जो सदाके लिए त्याग करता है, वह आरम्भसे निवृत्त हुई है बुद्धि जिसकी, ऐसा आरम्भत्यागी आठवाँ श्रावक कहा गया है ।। २९८ ।। जो वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर शेष सब परिग्रहको छोड देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रहमें भी मर्छा नहीं करता है, उसे परिग्रहत्यागप्रतिमाधारी नवमा श्रावक जानना चाहिए ।। २९९ ।। स्वजनोंसे और परजनोंसे पूछा गया जो श्रावक अपने गहसम्बन्धी कार्यमें अनुमोदना नहीं करता है, उसे अनुमतित्याग प्रतिमाधारी दसवाँ श्रावक जानना चाहिए ॥ ३०० ।। ग्यारहवें प्रतिमास्थानमें गया हुआ मनुष्य उकृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं, प्रथम एक वस्त्रका रखनेवाला और दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रहवाला।। ३०१ ।। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे कि क्षुल्लक कहते हैं) धम्मिल्लोंका चयन अर्थात् हजामत कैचीसे अथवा उस्तरेसे कराता है । तथा, प्रयत्नशील या सावधान होकर पीछी आदि उपकरणसे स्थान । झ. थोवं । २ झ. ब. बिइओ। ३ ब. वयणं । ४ ब. लेहइ मि । (१) सः स्यादारम्भविरतो विरमेद्योऽखिलादपि ।। पापहेतों: सदाऽऽरम्भात्सेवाकृष्यादिकात्सदा ।। १८० ॥ (२) निर्मूर्च्छ वस्त्रमानं यः स्वीकृत्य निखिलं त्यजेत् । बाह्य परिग्रहं स स्याद्विरक्तस्तु परिग्रहात् ॥ १८ ॥ (३) पृष्टोऽपृष्टोऽपि नो दत्तेऽनमति पापहेतुके । ऐहिकाखिल कार्ये योऽनुमतिविरतोऽस्तु सः ॥ १८२ ।।-गुण० श्रावक ) गेहादिव्याश्रमं त्यक्त्वा गर्वन्ते व्रतमाश्रितः। भक्ष्याशी: यस्तस्पतप्यददिदष्टाविरतो हि सः॥१८३ ।। * उद्दिष्टविरतो द्वधा स्यादाद्यो वस्त्रखण्डभाक् । संमूर्ध्वजानां । वपनं कर्तनं चैव कारयेत्॥१८४॥ गच्छेन्नाकारितो भोक्तं कुर्यादभिक्षां यथाशनम् । पाणिपात्रेऽन्यपात्र वा भजेदभक्ति निविष्टवान् ।। १८५ ।। भुक्त्वा प्रक्षाल्य पादं त्र) च गत्वा च गरुसन्निधिम । चतुर्धानपरित्यागं कृत्वाऽऽलो वनमाश्रयेत् ।। १८६ ।।-गुण. आ० (४) गेहादिव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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