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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४५५ मुंजे पाणिपत्तम्मि भायणे वा सई समुवइट्ठो । उववासं पुण नियमा चउग्विहं कुणइ पश्वेसु ॥ ३०३ पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिज्चा । भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चैव ॥ ३०४ सिघं लाहाला हे अदीणवयणो नियत्तिऊण तओ । अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कार्य' वा ॥ जइ अद्धव कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोत्तूण निययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ।। ३०६ अह ण भणइ तो भिक्वं भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं ।। ३०७ पक्वं जिज्जो सोहिऊन जत्तेण । पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्म ॥ ३०८ जइ एवं ण रज्जो काउंरिसगिहम्मि' चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमणं ता कुज्जा ।। तण गुरुसमीपच्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा । गहिऊण तओ सव्वं आलोचेज्जा पयत्तेण ॥ ३१०★ एमेव होइ बिइओ णवरिविसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरिज्ज पिच्चं भुंजिज्जो पाणिपत्तम्मि ।। ३११ (१) आदिका प्रतिलेखन अर्थात् संशोधन करता है ।। ३०२ ॥ पाणि- पात्र में या थाली आदि भाजन में ( आहार रखकर ) एक बार बैठकर भोजन करता है । किन्तु चारों पर्वोंमें चतुविध आहारको त्यागकर उपवास नियमसे करता है ।। ३०३ ।। पात्रको प्रक्षालन करके चर्याके लिए श्रावकके घरमें प्रवेश करता है और आंगन में ठहरकर 'धर्म - लाभ' स्वयं ही भिक्षा मांगता है ।। ३०४ ॥ भिक्षालाभके अलाभमें अर्थात् भिक्षा न मिलनेपर, अदीन-मुख वहाँसे शीघ्र निकलकर दूसरे घर में जाता है और मौन से अपने शरीरको दिखलाता है ।। ३०५ ।। यदि अर्ध- पथ में, अर्थात् मार्गके बीच में ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घर से प्राप्त अपनी भिक्षाको खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावकके अन्नको खावे ॥ ३०६ ॥ यदि कोई भोजन के लिए न कहे, तो अपने पेटके पूरत करनेके प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य अन्य श्रावकोंके घर जावे । आवश्यक भिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात् किसी एक घरमें जाकर प्रासुक जल माँगे ।। ३०७ || जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्नके साथ अपने पात्रको प्रक्षालनकर गुरुके पासमें जावे ।। ३०८ ।। यदि किसीको उक्त विधिसे गोचरी करना न रुचे, तो वह मुनियोंके गोचरी कर जानेके पश्चात् चर्याके लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षाके नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चय के लिए किसी श्रावक जनके घरमें जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले, तो उसे प्रवृत्ति - नियमन करना चाहिए, अर्थात् फिर किसी के घर न जाकर उपवास का नियम कर लेना चाहिए ।। ३०९ ।। पश्चात् गुरुके समीप जाकर विधिपूर्वक चतुविध (आहारके त्यागरूप ) प्रत्याख्यान ग्रहण कर पुनः प्रयत्न के साथ सर्वदोषोंकी आलोचना कके ।। ३१० ।। इस प्रकार ही अर्थात् प्रथम उत्कृष्ट श्रावकके समान ही द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है, केवल विशेषता यह है कि उसे नियमसे केशोंका लोंच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्र में खाना चाहिए ।। ३११ ।। दिन में प्रतिमायोग धारण करना अर्थात् नग्न होकर १ ब. कायव्वं । २ प अट्टवहे । ३ कांउंरिसिगोहणम्मि । ४ ध. नियमेणं । (१) द्वितीयोऽपि मवेदेवं स तु कौपीनमात्रवान् । कुर्याल्लोचं धरेत्पिच्छं पाणिपात्रेऽशनं भजेत् | १८ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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