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________________ ४५६ श्रावकाचार-संग्रह दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसू णत्थि अहियारो। सिद्धत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं' ॥ ३१२ (१) उद्दिपिंडविरओ दुवियप्पो सावओ समासेण । एयारसम्मि ठाणे भणिओ सुत्ताणुसारेण ॥ ३१३ रात्रिभोजनदोष-वर्णन एयारसेसु पढमं वि जदो णिसिभोयणं कुणंतस्स । ठाणं ण ठाइ' तम्हा णिसित्ति परिहरे णियमा ।। ३१४ चम्मट्टि-कीड-उंदुर-भुयंग-केसाइ असणमझम्मि । पडियं ण कि पि पस्सइ भंजइ सव्वं पि णिसिसमये ।। ३१५ दीउज्जोयं जह कुणइ तह वि चरिदिया अपरिमाणा । णिवडंति दिद्विराएण मोहिया असणमज्झम्मि ।। ३१६ इयएरिसमाहारं भुजतो आदणासमिह लोए । पाउणइ परभवम्मि चउगइ संसारदुक्खाई। ३१७ एवं बहुप्पयार दोसं णिसिभोयणम्मि णाऊण । तिविहेण राइभुत्ती परिहरियव्वा हवे तम्हा ।३१८ श्रावकके अन्य कर्तव्य विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं । सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहि ।। ३१९ (२) दिनभर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या अर्थात् मनिके समान गोचरी करना, त्रिकाल योग अर्थात् गमि पर्वतके शिखरपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, और सर्दी में नदीके किनारे ध्यान करना, सिद्धान्तग्रन्थोंका अर्थात् केवली, श्रुतकेवली-कथित गणधर, प्रत्येकबुद्ध और अभिन्नदशपूर्वी साधुओंसे निर्मित ग्रन्थोंका अध्ययन और रहस्य अर्थात प्रायश्चित्त शास्त्रका अध्ययन, इतने कार्योमें देशविरतो श्रावकोंका अधिकार नहीं है ।। ३१२ ।। ग्यारहवें प्रतिमास्थानमें उपासकाध्ययन-सूत्रके अनुसार संक्षेपसे मैंने उद्दिष्ट आहारके त्यागी दोनों प्रकारके श्रावकोंका वर्णन किया ।। ३१३ ।। ~ कि, रात्रिको भोजन करनेवाला मनुष्यके ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए नियमसे रात्रिभोजनका परिहार करना चाहिए ।। ३१४ ।। भोजनके मध्य गिरा हुआ चर्म अस्थि, कीट-पतंग सर्प और केश आदि रात्रिके समय कुछ भी नहीं दिखाई देता है, और इसलिए रात्रिभोजी पुरुष सबको खा जाता है ।। ३१५ ।। यदि दीपक जलाया जाता है, तो भी पतंगे आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिरागसे मोहित होकर भोजनके मध्य गिरते हैं ।। ३१६ ॥ इस प्रकारके कीट-पतंगयुक्त आहारको खानेवाला पुरुष इस लोकमें अपनी आत्माका या अपने आपका नाश करता है, और परभवमें चतुर्गतिरूप संसारके दुखोंको पाता है ।। ३१७ ।। इस प्रकार रात्रिभोजनमें बहुत प्रकारके दोष जान करके मन, वचन, कायसे रात्रि भोजनका परिहार करना चाहिए ।। ३१८ ।। देशविरत श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन-विधान करना चाहिए ।। ।। ३१९ ।। दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और १ प. ब. विरयाणं । २ ब. पि । ३ ब. वाइ । ४ ब. दुदुर । ५ ध. दुंदुर । ध. पयारे। ६ध. दोसे । (१) वीरचर्या-दिनच्छाया सिद्धान्ते निह्यसंश्रुतौ । कालिके योऽवयोगेऽस्य विद्यते नाधिकारिता ।। १८८॥-गुण० श्राव० (२) विनयः स्याद्वयावृत्त्यं कायक्लेशस्तथार्चना। कर्तव्या देशविरतेर्यथाशक्ति यथागमम् ॥ १९०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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