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वसुनन्दि-श्रावकाचार
विनयका वर्णन दसण-णाण-चरिते तव उवयारम्मि पंचहा विणओ। पंचमगइगमणत्थं' कायव्वो देसविरएण। (१) णिस्संकिय-संवेगाइ जे गुणा वणिया मए' पुव्वं । तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दंसणो विणओ ।। ३२१ (२) णाणे जाणवयरणे य णाणवंतम्मि तह य भत्तीए ।
जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाणविणओ हु ।। ३२२ (३) पंचविहं चारित्तं अहियाराजे य वणिया तस्स । जंतेसि बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो॥३२३
बालो यं बुड्ढो यं संकप्पं वज्जिऊण तवसीण' । जं पणिवायं कीरह तवविणयं तं वियाणीहि ॥ ३२४ (४) उवयारिओ वि विणओ मण-वचि-काएण होइ तिवियप्पो । सो पुण दुविहो भणिओ पच्चक्ख-परोक्खभेएण ॥ ३२५ (५) जं दुप्परिणामाओ मणं णियत्ताविऊण सुहजोए । ठाविज्जइ सो विणओ जिणेहि माणस्सिओ भणिओ ।। ३२६ (६)
उपचारविनय, यह पाँच प्रकारका विनय पंचमगति गमन अर्थात् मोक्ष-प्राप्तिके लिए श्रावकको करना चाहिए ।। ३२० ॥ निःशंकित, संवेग आदि जो गुण मैंने पहले वर्णन किये हैं, उनके परिपालन को दर्शन-विनय जानना चाहिए ।। ३२१ ।। ज्ञानमें, ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदिकमें, तथा ज्ञानवंत पुरुषमें भक्तिके साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञानविनय है ३२२ ॥ परमागममें पांच प्रकारका चरित्र और उसके जो अधिकारी या धारण करनेवाले वर्णन किये गये हैं, उनके आदर-सत्कारको चरित्रविनय जानना चाहिए ।। ३२३ ।। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकारका संकल्प छोडकर तपस्वी जनोंका जो प्रणिपात अर्थात् आदरपूर्वक वंदन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना चाहिए ॥ ३२४ । औपचारिक विनय भी मन, वचन, कायके भेदसे तीन प्रकारकी होती है और वह तीनों प्रकारका वियन प्रत्यक्ष, और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है ।। ३२५ ।। जो मनको खोटे परिणामोंसे हटाकर शुभयोगमें स्थापन किया जाता है अर्थात् लगाया जाता है, उसे जिन भगवान्ने मानसिक विनय कहा है ।। ३२६ ।।
१३. गमणत्थे। २ इ म. तवस्सीणं। ४ न.प. वियाहिं। ..
(१) दर्शनज्ञानचारित्रैस्तपसाऽप्युपचारतः । विनयः पंचधा स स्यात्समस्तगुणभूषणः ।। १९१ ।। (२) निःशंकित्वादयः पूर्व ये गुणा वर्णिता मया । यत्तेषां पालनं स स्याद्विनयो दर्शनात्मकः १९२ । (३) ज्ञाने ज्ञानोपचारे च........
(४) यहाँका पाठ मुद्रित प्रतिमें नहीं है और उसकी आदर्शभूत पंचायती मन्दिर देहली की हस्तलिखित प्रतिमे भी पत्र टूट जानेसे पाठ उपलब्ध नहीं नहीं है । —संपादक ।
(५) मनोवाक्काय भेदेन....................। प्रत्यक्षतरभेदेन सापि स्थाद्विविधा पुनः। (६) दुर्थ्यानात्समाकृष्य शुभध्यानेन धार्यते । मानसं त्वनिशं प्रोक्तो मानसो विनयो हि सः ।। १९७।।
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