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________________ ४५८ श्रावकाचार-संग्रह हिय-मिय पुज्ज' सुत्ताणुवीचि अफरसमकक्कसं वयणं । संजमिजणम्मि जं चाइभासणं वाचिओ विणओ।। ।। ३२७ (१) किरियम्मभट्ठाणं णवणंजलि आसणुवकरणदाणं । एते पच्चुग्गमणं च गच्छमाणे अणुव्वजणं । ३२८ (२) कायाणुरूवमद्दणकरणं कालाणुरूवपडियरणं । संथाणभणियकरणं उवयरणाणं च पडिलिहणं ।। ३२९ इच्चेवमाइ काइयविणओ रिसि-सावयाण कायव्वो। जिणवयणमणुगणंतेण देसविरएण जहजोग्गं ॥ ३३० (३) इय पच्चक्खो एसो भणिओ गुरुणा विणा वि आणाए।। अणुवट्टिज्जए जं तं परोक्खविणओ ति विण्णेओ ।। ३३१ (४) विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंतओ पुरिसो।। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य ॥ ३३२ (५) जे केइ वि उवएसा इह-परलोए सुहावहा संति । विणएण गुरुजणाणं' सम्वे पाउणइ ते पुरिसा । ३३३ (६) हित, मित, पूज्य, शास्त्रानकल तथा हृदयपर चोट नहीं करनेवाले कोमल वचन कहना और संयमी जनोंमें चाटु (नर्म) भाषण करना सो वाचिक विनय है ।। ३२७ ।। साधु और श्रावकोंका कृतिकर्म अर्थात् वंदना आदि करना, उन्हें देख उठकर खडे होना, नमस्कार करना, अंजली जोडना, आसन और उपकरण देना, अपनी तरफ आते देखकर उनके सन्मुख जाना, और जानेपर उनके पाछ-पीछे चलना, उनके शरीरके अनुकूल मर्दन करना, समयके अनुसार अनुकरण या आचरण करना, संस्तर आदि करना, उनके उपकरणोंका प्रतिलेखन करना, इत्यादिक कायिक विनय है। यह कायिक विनय जिनवचनका अनुकरण करनेवाले देशविरती श्रावकको यथायोग्य करना चाहिए ।। ३२८-३३० ।। इस प्रकारसे यह तीनों प्रकारका प्रत्यक्ष विनय कहा । गुरुके विना अर्थात् गुरुजनोंके नहीं होनेपर भी उसकी आज्ञाके अनुसार मन, वचन, कायसे जो अनुवर्तन किया जाता है, वह परोक्ष-विनय है, ऐसा जानना चाहिए।। ३३१।। विनयसे पुरुष शशांक (चन्द्रमा) के समान उज्वल यशःसमहसे दिगन्तको धवलित करता है । विनयसे वह सर्वत्र सुभग अर्थात् सब जगह सबका प्रिय होता है और तथैव आदेयवचन होता है, अर्थात् उसके वचन सब जगह आदरपूर्वक ग्रहण किये जाते हैं ।। ३३२ । जो कोई भी उपदेश इस लोक और परलोकमें जीवोंको सुखके देनेवाले होते हैं, उन सबकों मनुष्य गुरुजनोंकी विनयसे प्राप्त करते हैं ।। ३३३ ।। १ ध. पुज्जा । २ प्रतिष 'गुरुजणाओ' इति पाठः। (१) वचो हितं मितं पूज्यमनुवीचिवचोऽपि च । यद्यतिमनुवर्तेत वाचिको विनयोऽस्तु सः ।। १९८॥ (२) गुरुस्तुतिक्रियायुक्ता नमनोच्चासनार्पणम् । सम्मुखो गमनं चव तथा वाऽनुव्रजक्रिया ।। १९९ ।। (३) अंगसंवाहनं योग्यप्रतीकारादिनिमितिः । विधीयते यतीनां यत्कायिको विनयो हि सः ।। २०० ।। (४) प्रत्यक्षोऽप्ययमेतस्य परोक्षस्तु विनापि वा । गुरूंस्तदाज्ञयव स्यात्प्रवृत्तिः धर्मकर्मसु ॥ २०१ ।। (५) शशांक निर्मला कीत्तिः सौभाग्यं भाग्यमेव च । आदेयवचनत्वं च भवेद्विनयतः सताम् ।। २०२।। (६) विनयेन समं किंचिन्नास्ति मित्रं जगत्त्रये । यस्मात्तेनैव विद्यानां रहस्यमपलभ्यते ॥ २०३ ।। —गुण० श्राव० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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