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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४५९ देविंद-चक्कहर-मंडलीयरायाइ जं सुहं लोए । तं सव्वं विणयफलं णिव्वाणसुहं तहा' चेव ॥ ३३४ सामण्णा वि य विज्जा ण विणयहीणस्स सिद्धिमुवयाइ। कि पुण णिव्युइविज्जा विणयविहीणस्स सिज्झेइ ।। ३३५ सत्तू वि मित्तभावं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स । विणओ तिविहेण तओ कायव्वो देसविरएण ३३६ (१) वैयावृत्त्यका वर्णन अइबाल-बुड-रोगाभिभूय-तणुकिलेससत्ताणं । चाउवणे संघे जहजोगंतह मणुण्णाणं ।। ३३७ (२) कर-चरण-पिट-सिरसाणं महण-अभंग-सेवकिरियाहि उव्वत्तण-परियत्तण-पसारणकुंचणाईहिं ३३८ पडिजग्गणेहि तणजोय-भत्त-पाणेहि भेसजेहिं तहा। उच्चराईण विकिंचणेहि तणुधोवणेहि।। च ३३९ संथारसोहणेहि य विज्जावच्चं सया पयत्तेण । कायव्वं सत्तीए णिन्विदिगिच्छेण भावेण ।। ३४२ णिस्संकिय-संवेगाइय जे गुणा वणिया मणो विसया । ते होंति पायडा पुण५ विज्जावच्चं करंतस्स ।। ३४१ देह-तव-णियम-संजम-सील-समाही य अभयदाणं च । गइ मइ बलं च दिण्णं विज्जावच्चं करतेण ॥ ३४२ (३) संसारमें देवेन्द्र, चक्रवर्ती, और मांडलिक राजा आदिके जो सुख प्राप्त हैं, वह सब विनय का ही फल है । और इसी प्रकार मोक्षका सुख पाना भी विनयका ही फल है ।। ३३४ ।। जब साधारण विद्या भी विनय-रहित पुरुषके सिद्धिको प्राप्त नहीं होती है, तो फिर क्या मुक्तिको प्राप्त करनेवाली विद्या विनय-विहीन पुरुषके सिद्ध हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं सिद्ध हो सकती ।। ३३५ ।। चवि, विनयशील मनुष्यका शत्रु भी मित्रभावको प्राप्त हो जाता है, इसलिए श्रावकको मन, वचन, कायसे विनय करना चाहिए। ३३६ ।। मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका इस चार प्रकारके चतुर्विध संघमें अतिबाल, अतिवृद्ध, रोगसे पीडित अथवा अन्य शारीरिक क्लेशसे संयुक्त जीवोंका, तथा मनोज्ञ अर्थात् लोकमें प्रभावशाली साधु या श्रावकोंका यथायोग्य हाथ, पैर, पीठ और शिरका दबाना, तेलमर्दन करना, स्नानादि कराना, अग सेकना, उठाना, बैठाना, अंग पसारना, सिकोडना, करवट दिलाना, सेवा-शुश्रूषा आदि समयोचित कार्योंके द्वारा, शरीरके योग्य पथ्य अन्न-जल द्वारा, पथा औषधियोंके द्वारा, उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र) आदि के दूर करनेसे, शरीरके धोनेसे. और सस्तर (बिछौना) के शोधनेसे सदा प्रयत्नपूर्वक ग्लानि-रहित भावसे शक्तिके अनसार वैयावत्य करना चाहिए।।३३७-३४० ।। निशंकित आदि और संवेग आदि जो मनोविषयक गण पहले वर्णन किये गये हैं. वे सब गण वैयावत्य करनेवाले जीवके प्रकट होते हैं। ३४१॥ वैयावृत्त्यको करनेवाले श्रावकके द्वारा देह, तप, नियम, संयम और शीलका समाधान, अभय दान तथा गति, मति और बल दिया जाता है ।। ३४२ ।। भावार्थ-साधु जन या श्रावक आदि १ प. तहच्चेव । २ इ. सिज्झेह, झ. सिज्झिहइ, ब. सब्भिहइ । ३ इ. पडित्तग्गा०, ब. पडिज्जग्ग० । ४ ब. मुणे । ५ ध. गुण । ) विद्वेषिणोऽपि मित्रत्वं प्रयान्ति विनयाद्यतः। तस्मात्त्रेधा विधातव्यो विनयो देशसंयतः॥२०४॥ (२) बाल वार्धक्यरोगादिक्लिप्टे संघ चतुर्विधे । वैयावृत्यं यथाशक्तिविधेयं देशसंयतः ।। २०५ ।। (३) वपुस्तपोबलं शीलं गति-बुद्धि-समाधयः । निर्मलं नियमादि स्याद्वैयावृत्यकृतार्पणम् ।। २०५।। -गुण० श्रा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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