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श्रावकाचार-संग्रह
संसारकारणं पूर्व परं निर्वृतिकारणम् । इत्याद्यं द्वितयं त्याज्यमादेघमपरं बुधैः ॥ १० प्रियायोगा प्रियायोगपीडालक्ष्मीविचिन्तनम् । आतं चतुविधं ज्ञेयं तिर्यग्गतिनिबन्धनम् ।। ११ रौद्रं हिसानृतस्तेयभोगरक्षणचिन्तनम् । ज्ञेयं चतुविधं शक्तं श्वभ्रभूमिप्रवेशने ।। १२ आज्ञापायविपाकानां चिन्तनं लोकसंस्थितेः । चतुर्धाऽभिहितं धर्म्यं निमित्तं नाशकर्मणः ।। १३ शुक्लं पृथक्त्ववतर्कवीचारं प्रथमं मतम् । जिनैरेकत्ववीत कवीचारं च द्वितीयकम् ।। १४ अन्यत्सूक्ष्मक्रियं तुयं समुच्छिन्नक्रियं मतम् । इत्थं चतुविधं शुक्लं सिद्धिसौधप्रवेशकम् ॥ १५ आतं तनूमतां ध्यानं प्रमत्तान्तगुणाश्रितम् । संयतासंयतान्तानां रौद्रं ध्यानं प्रवर्तते ॥ १६ अनपेतस्य धर्मस्य धर्मतो दशभेदतः । चतुर्थः पञ्चमः षष्ठः सप्तमश्च प्रवर्तकः ॥ १७
प्रकारका ध्यान ध्यानवालोंके मान्य गणधरादि देवोंने क्रमशः संसार और मोक्षका कारणभूत कहा है ।। ९ ।। उनमेंसे आदिके दो ध्यान संसार के कारण हैं और अन्तिम दो ध्यान मोक्षके कारण हैं । अतः ज्ञानी जनोंको आदिके दो ध्यान छोडना चाहिए और अन्तके दो ध्यान ग्रहण करना चाहिए ।। १० ।।
अब आर्त्तध्यानका वर्णन करते हैं-प्रिय वस्तुके वियोगका, अप्रिय वस्तुके आयोग ( संयोग ) की पीडा दूर करनेका और लक्ष्मीकी प्राप्तिका चिन्तवन करना, यह चार प्रकारका आर्त्तध्यान है । इसे तिर्यग्गतिका कारण जानना चाहिए ।। ११ ।।
अब रौद्रध्यानका वर्णन करते हैं- हिंसा करनेका. झूठ बोलनेका, चोरी करनेका तथा भोगोंकी रक्षाका चिन्तवन करना, यह चार प्रकारका, रौद्रध्यान है । यह नरकभूमि में प्रवेश कराने में समर्थ है, ऐसा जानना चाहिए ।। १२ ।।
अब धर्म्यध्यानका वर्णन करते हैं- सर्वज्ञदेवकी आज्ञाका चिन्तवन करना, सांसारिक दुःखोंके विनाशका चिन्तवन करना, कर्मोंके विपाक (फल) का चिन्तवन करना और लोकके संस्थानका विचार करना यह चार प्रकारका धर्म्यध्यान है, जो कि स्वर्गके सुखका कारण कहा गया है ।। १३ ॥
अब शुक्लध्यानका वर्णन करते हैं- पहला पृथक्त्ववितर्कवीचार, दूसरा एकत्ववितर्कअवचार, तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और चौथा समुछिन्न क्रिया निवृत्ति यह चार प्रकारका शुक्लध्यान जिन भगवान् ने कहा है, जो कि मुक्ति महल में प्रवेश करानेका कारण है ।। १४-१५ ।।
विशेषार्थ - वस्तु के द्रव्य गुण और पर्यायका परिवर्तन करते हुए चिन्तवन करना एकत्ववितर्क विचार है । योगोंको बादररूपसे सूक्ष्म क्रियामें परिणत होना सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान है । योगोंकी क्रिया विच्छिन्न होनेको समुच्छित क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं । इनमें से पहला शुक्लध्यान आठवेंसे ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है। दूसरा शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थानमें होता है । तीसरा शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थानके अन्त में और चौथा शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थानमें होता है ।
अब ध्यानके स्वामियोंको कहते हैं - आर्त्तध्यान छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके जीवोंके होता है । रौद्रध्यान संयतासंयत नामक पांचवें गुणस्थान तक के जीवोंके होता है ।। १६ ।। धर्मसे संयुक्त धर्म्यध्यान आज्ञाविचय आदिके भेदसे दश प्रकारका कहा गया है और इसके प्रवर्तक या आराधक स्वामी चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थानके धारक जीव होते हैं ।। १७ ।।
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