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अमितगतिकृतः श्रावकाचार:
४०५ केवललोकालोकितलोकोऽमितगतियतिपतिसुरपतिमहिताम् । याति स सिद्धि पावनशुद्धि विगलितकलिमलगुणमणिसहिताम् ॥ ८४
इत्युपासकाचारे चतुर्दशः परिच्छेदः ।
पञ्चदशः परिच्छेदः नियम्य करणग्रामं व्रतशीलगुणावत ' । सर्वो विधीयते भव्यविधिरेष विमक्तये ॥ १ न सा सम्पद्यते जन्तोः सर्वकर्मक्षयं विना । रजोऽपहारिणी वृष्टिबलाहकमिवोजिता ।। २ समस्तकर्मविश्लेषो ध्यानेनैव विधीयते । न भास्करं विनाऽन्यन हन्यते शार्वरं तमः ॥ ३ यत्न: कार्यो बुधाने कर्मभ्यो मोक्षकांक्षिभिः रोगेभ्यो दुःखकारिभ्यो व्याधितैरिव भेषजे ।। ४ आद्यत्रिसंहतेः साधोरान्तमौहतिक परम् । वस्तुन्यकत्र चित्तस्य स्थैर्य ध्यानमदीर्यते ॥ ५ तवन्येषां यथाशक्ति मनोरोधविधायिनाम् । एकद्वित्रिचतुःपञ्चषडापिक्षणगोचरम् ॥ ६ साधकः साधनं साध्यं फलं चेति चतुष्टयम् । विबोद्धव्यं विधानेन बुधः सिद्धि विधित्सुभिः ७ संसारो साधको भव्यः साधनं ध्यानमुज्ज्वलम् । निर्वाणं कथ्यते साध्यं फलं सौख्यमनश्वरम् ।। ८ आतं रौद्रं तथा धर्म्य शुक्लं चेति चतुर्विधम् । ध्यानं ध्यानवतां मान्यैर्भवनिर्वाणकारणम् ।। ९ कल्मषसे रहित एवं अनन्त गुणरूप मणियोंसे सहित ऐसी पावन शुद्धिवाली सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करता है । ८३-८४ ॥
इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें चौदहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ।
अब आचार्य ध्यानका वर्णन करते हैं-व्रत शील और गुणोंसे संयुक्त भव्य पुरुष मुक्तिकी प्राप्तिके लिए अपने इन्द्रियोंके समूहका नियमन करके यह आगे कहे जानेवाली सर्व विधिका पालन करते हैं ।। १ । वह मुक्ति सर्व कर्मोंके क्षय हुए विना जीवको नहीं प्राप्त हो सकती है । जैसे कि मेघके विना धूलिको दूर करने वाली उत्तम वर्षा नहीं हो सकती है ।। २ ॥ सर्व कर्मोंका अभाव ध्यानके द्वारा ही किया जाता है । क्योंकि सूर्यके विना रात्रिका अन्धकार अन्य के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता है ।। ३ ।। इसलिए कर्मोंसे मोक्ष पानेकी आकांक्षा रखने वाले ज्ञानी जनोंको ध्यानमें प्रयत्न करना चाहिए। जैसे कि दुःखकारी रोगोंसे छुटकारा पाने के लिए रोगी पुरुष औषधिके लिए प्रयत्न करते हैं ।। ४ ।।
.अब ध्यानका स्वरूप कहते हैं-आदिके तीन संहननों मेंसे किसी एक संहननके धारक साधुको उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जो एक वस्तुके चिन्तवनमें चित्तकी स्थिरता रहती है, उसे ध्यान कहते हैं ॥५॥ उक्त उत्तम तीन संहननोके सिवाय अन्य संहनन-धारक और मनका निरोध करने वाले पुरुषोंके उनकी सामर्थ्य के अनुसार एक दो तीन चार पांच छह आदि क्षणों तक चित्तकी स्थिरता रहती है।। ६ ।। सिद्धिके इच्छक ज्ञानी जनोंको ध्यानका साधक, साधन साध्य और फल इन चार बातोंका विधिपर्वक ज्ञान करना चाहिए ॥७॥ आचार्य उक्त चारों बातोंका स्पष्टीकरण करते हैं-संसारी भव्य पुरुष ध्यानका साधक होता है, उज्ज्वल ध्यान साधन है, मोक्ष साध्य है और अविनश्वर सुख ध्यानका फल है ।। ८ ।।
अब ध्यानके भेद कहते हैं-आर्तध्यान रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान यह चार १. मु० दृते । २. मु मतं ।
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