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________________ ४०४ श्रावकाचार-संग्रह मनुजभवमवाप्य यो न धर्म विषयसुखाकुलितः करोति पथ्यम् । मणिकनकनगं समेत्य मन्ये पिपतिषति स्फुटमेष जीवितार्थी ।। ७७ कलुषयति कुधीनिरस्तधर्मो भवशतमेकभवस्य कारणं यः । अभिलषितफलानि दातुमीशं त्यजति तृणाथितया स कल्पवृक्षम् ॥ ७८ शमयमनियमव्रताभिरामं चरति न यो जिनधर्ममस्तदोषम्। भवमरणनिपीडितो दुरात्मा भ्रमति चिरं भवकानने स भीमे ।। ७९ विगलितकलिलेन येन युक्तो भवति नरो भुवनस्य पूजनीयः । शुचिवचनमनःशरीरवृत्त्या भजति बुधो न कथं तमत्र धर्मम् ।। ८० शान्तिर्दिवमार्जवं निगदितं सत्यं शुचित्वं तपस्त्यागोऽकिञ्चनता मुमक्षपतिमिब्रह्मव्रतं संयमः । धर्मस्येति जिनोदितस्य दशधा निर्दषणं लक्षणं । कुर्वाणो भवयन्त्रणाविरहितो मुक्त्यनां श्लिष्यति ।। ८१ योऽनुप्रेक्षा द्वादशापीति नित्यं भव्यो भक्त्या ध्यायति ध्यानशील: । हेयादेयाशेषतत्त्वावबोधी सिद्धि सद्यो याति स ध्वस्तकर्मा ।। ८२ सूचिततत्त्वं ध्वस्तकुतत्त्वं भवभयविदलनदमयमकथनम् । यो हृदि धत्ते पापनिवृत्त्यै शुचिरुचिरुचिरं जिनपतिवचनम् ।। ८३ कायसे धारण करनेके योग्य है ।। ७६ ।। मनुष्य भवको पाकरके जो जीव विषय सुखसे आकुलित होकर हितकारी पथ्यरूप धर्मका आचरण नहीं करता है, वह रत्न-सुवर्णके पर्वतको प्राप्त होकरके भी जीनेका इच्छुक होकर उससे नीचे गिरनेकी इच्छा करता है, ऐसा मै नियमसे मानताहूँ। ७७ ।। जो कुबुद्धि पुरुष धर्म छोडकर एक भवके कारण अनेक भवोंका बिगाडता है, वह अभिलषित फलोंका देने में समर्थ कल्प वृक्षको तृणका इच्छुक होकर छोडता है, ऐसा मैं मानता हूँ॥७८॥ जो दुरात्मा पुरुष शम यम नियम और व्रतोंसे अभिराम, तथा सर्व दोषोंसे रहित ऐसे जिनधर्मका आचरण नहीं करता है, वह जन्म मरणसे पीडित होता हुआ इस भयंकर भव-काननमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।।७९।। जिस निष्पाप धर्मसे संयुक्त मनुष्य जगत्का पूजनीय हो जाता है। उस धर्मको इस लोकमें ज्ञानी जन पवित्र मन वचन और कायकी प्रवृत्तिसे कैसे नहीं सेवन करते है ? अर्थात् सेवन करते ही हैं ।। ८०॥मोक्षके अभिलाषी जनोंके स्वामी जिनदेवोंने धर्म दश प्रकारका कहा है-क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम तप त्याग आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य । जो जीव जिनोपदिष्ट इस दश प्रकारके निर्दोष लक्षण वाले धर्मका पालन करता है, वह भवयंत्रणासे रहित होकर मुक्तिरूपी अगना को आलिंगन करता है ।। ८१।। इस प्रकार धर्म भावना कही। जो ध्यानशील भव्य भक्तिसे नित्य ही इन बारह भावनाओंका चिन्तवन करता है, वह समस्त हेय-उपादेय तत्त्वका ज्ञाता बनकर और कर्मोंका नाश कर शीघ्र ही सिद्धिको प्राप्त हीता है ।। ८२ ।। जो पुरुष तत्वको प्रकट करनेवाले, कुतत्त्वके विनाशक, भव-भवके विदलन करनेवाले इन्द्रिय-दमन और पाप- विरमणरूप संयमका कथन करने वाले, तथा पवित्ररुचिसे सुन्दर ऐसे जिनेन्द्रदेवके वचनको पापोंकी निवृत्तिके लिए हृदयमें धारण करता है, वह केवलज्ञानरूप प्रकाशसे सर्वलोकको प्रकाशित कर स्वयं सर्व जगत्को देखता हुआ मुनिराजों और देवराजोंसे पूजित, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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