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________________ अमितगतिकृत. श्रावकाचारः शरी ध्रियते येन शमेनेव महाव्रतम् । कस्तस्याहारदानस्य फलं शक्नोति भाषितुम् ॥१३ . आहारेण विना कायो न तिष्ठति कदाचन । भास्करेण विना कुत्र वासरो व्यवतिष्ठते ॥१४ शमस्तपो दया धर्मः संयमो नियमो दमः । सर्वे तेन बितीयन्ते येनाहारो वितीर्यते॥१५ ।। चिन्तितं पूजितं भोज्यं क्षीयते तस्य नालये । आहारो भक्तितो येन दीयते व्रतवतिनाम् ॥ १६ कल्याणानामशेषाणां भाजनं स प्रजायते । सलिलानाभिवाम्भोधिर्येनाहारो वितीर्यते । १७ स्वयमेव प्रियोऽविष्य धनं दातारमन्धसः । आयान्ति तरसा श्रेष्ठा: सुभगं वनिता इव ।।१८ सम्पदस्तीर्थकर्तणां चक्रिणामर्धचक्रिणाम् । भजन्त्यशनदं सर्वाः पयोधिमिव निम्नगाः ॥१९ प्रक्षीयन्ते न तस्यार्था ददानस्यापि भूरिशः । ददाना जनतानन्दं चन्द्रस्येव मरीचयः ॥२० यत्फलं ददत: पृथ्वीं प्रासुक यच्च भोजनम् । अनयोरन्तरं मन्ये तृणाब्धि-जलयोरिव ।।२१ अन्नदानप्रसादेन यत्र यत्र प्रजायते । तत्र तत्रास्यते भोगेर्न भास्वानिव रश्मिभिः ॥२२ दवानोऽशनमात्रं यत्फलमाप्नोति मानवः । दाता सुवर्णकोटीनां न कदाचन तद् ध्रुवम् १२३ विना भोगोपभोगभ्यश्चिरं जीवति मानवः । न विनाऽऽहारमात्रेण तुष्टिपुष्टिप्रदायिना ।।२४ हो । अर्थात् अभय दानके फलसे सभी सुख प्राप्त होते है ।। २।। जिस प्रकार समभावके द्वारा महाव्रत पुष्ट होते है, उसी प्रकार अभयदानके द्वारा शरीर पुष्ट होता हैं। ऐसे उस अभयदानके फलको कहनेके लिए कौन पुरुष समर्थ हो सकता है। अर्थात् अभयदानका फल वर्णनातीत हैं ।।१३॥ अब आचार्य आहार दानका वर्णन करते है-आहारके विना यह शरीर किसीभी प्रकारसे नही ठहर सकता है जैसे कि सूर्यके विना दिन कहां ठहर सकता हैं ।। १४॥ जो पुरुष आहार देता है, उसके द्वारा शम, नप, दया, धर्म, संयम नियम और दम आदि सभी गुण दिये दाते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१५॥ जो पुरुष भक्तिसे व्रतधारियोंको आहार देता है, उसके घर में मनोवांछित और प्रशंसनीय भोजन सामग्री कभी क्षयको प्राप्त नहीं होती है ।।१६।। जो आहार दान देता हैं वह समस्त कल्याणोंका भाजन होता है, जैसे कि समुद्र सर्वजलोंका भाजन होता है ।।१७।। जैसे उत्तम स्त्रियां सौभाग्यशाली पुरुषके पास स्वयं आती है, उसी प्रकार आहार दान देनेवाले धन्यपुरुषके पास सर्व प्रकारकी लक्ष्मिणं अन्वेषण करके स्वयमेव शीघ्र आती है ।।१८।। जैसे समस्त नदियां समुद्रको प्राप्त होती है, उसी प्रकार तीर्थंकर चक्रवर्ती और अर्धचक्री नारायण आदिकी समस्त सम्पदाएं आहार देनेवाले पुरुषको प्राप्त होती है ।।१९। जैसे जनताके आनन्दको देने वाली चन्द्रमाकी किरणे कभी क्षीण नही होती है, उसी प्रकार बहुत भो आहारदान देनेवाले पुरुषकी सम्पदाएं कभी भी क्षयको प्राप्त नहीं होती है ।।२०।। समस्त पृथ्वीके दानका जो फल है और प्रासुक भोजनके दानका जो फल हैं, इन दोनों में मै तृण और समुद्र जलके समान महान् अन्तर मानता हूँ। भावार्थ-तणकी नोंकपर रखा जल-बिन्दु और समुद्रका जल जैसा भू-दान और आहार-दानमें महान अंतर है ।।२१।। अन्न दानके प्रसादसे यह जीव जहां जहां भी उत्पन्न होता है, वहां वहां पर भोगोंसे रिक्त नहीं होता है । जैसे कि सूर्य जहां जहां भी जाय, वह किरणों से रहित नहीं होता है ।।२२।। केवल आहार दानको देनेवाला मानव जो फल प्राप्त करता है,वह कोटि-सुवर्णके दानसे भी नियमतः कदाचित् भी प्राप्त नहीं होता है । २३।। भोग और उपभोग १. मु तत्रोझ्यते . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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