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________________ श्रावकाचार-संग्रह केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखतः सुखम् । आहारदानतो दानं नोत्तमं विद्यते परम् ॥ २५ अन्धसा क्रियते यावानुपकारः शरीरिणः । न तावान् रत्नकोटीभिः पुजिताभिरिति 'स्फुटम् ॥२६ हीयन्ते निखिलाश्चेष्टा विना भोजनमात्रया । गुप्तयो व्यवतिष्ठन्ते विना कुत्र तितिक्षया ।। २७ शौर्यते तरसा गात्रं जन्तोर्वजितमन्धसा । विना नीरं क्व सस्यस्य कोमलस्य व्यवस्थितिः ।। २८ यथाऽऽहारः प्रियः पुंसां न तथा किञ्चनापरम् । विक्रीयन्ते प्रियाः पुत्रास्तदर्थ कथमन्यथा ॥ २९ यत्किञ्चित्सुन्दरं वस्तु दृश्यते भुवनत्रये । तदन्नदायिना क्षिप्रं लभ्यते लीलयाऽखिलम् ।। ३० बहुनाऽत्र किमुक्तेन विना सकलवेदिना । फलं नाऽऽहारदानस्य परः शक्नोति भाषितुम् ।। ३१ रक्ष्यते तिनां येन शरीरं धर्मसाधनम् . पार्यते न फलं वस्तुं तस्य भैषज्यदायिनः ।। ३२ येनौषधप्रदस्यह बचनैः कथ्यनैः कथ्यते फलम् । चुलकर्मीयते तेन पयो नूनं पयोनिधेः ।। ३३ वातपित्तकफोत्थाने रोगैरेषन पोडयते । दावैरिव जलस्थाची भेषजं येन दीयते॥ ३४ रागनिपीडितो योगी न शक्तो व्रतरक्षणे । नास्वस्थः शक्यते कर्तु स्व-स्वकर्म कदाचन ॥ ३५ न जायते सरोगत्वं जन्तोरोषधदायिनः । पावकं सेवमानस्य तुषार हि पलायते ।। ३६ के विना मनुष्य चिरकाल तक जीवित रह सकता हैं। किन्तु तुष्टि और पुष्टिको देनेवाले केवल आहारके विना जीवित नहीं रह सकता है ॥२४॥ इस संसारमें केवलज्ञानसे उत्तम कोई दूसरा ज्ञान नहीं है, निर्वाणके सुखसे श्रेष्ठ कोई सुख नहीं हैं और आहार दानसे उत्तम कोई दान नहीं हैं ।।२५।। भोजनके द्वारा शरीर-धारीका जितना उपकार किया जाता है, उतना उपकार एकत्र पुंज किये कोटि-रत्नोंके द्वारा भी नहीं किया जाता हैं यह बात स्पष्ट है ।।२६ । भोजनकी मात्राके विना प्राणीकी समस्त चेष्टाए नष्ट हो जाती है । देखो-क्षमाके विना मन-वचन-काय-गुप्तियां कहां ठहर सकती हैं ।।२७।। आहारके विना प्राणीका शरीर शीघ्र क्षीण हो जाता हैं। देखो-जलके विना कोमल घासकी स्थिति कहां हो सकती हैं ।।२८ । मनुष्योंको जैसा आहार प्यारा हैं,वैसी और कोई वस्तु प्यारी नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय, तो केवल आहार प्राप्त करनेके लिए मनुष्य अपने प्रिय पुत्रोंको कैसे बेंच देते है ।।२९।। तीन भुवनमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तु दिखाई देती वह सर्व अन्नदान करने वाले पुरुषको लीला मात्रसे शीघ्र प्राप्त हो जाती हैं ॥३०॥ इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ हैं । आहारदानके फलको सर्वज्ञके विना अन्य कोई पुरुष कहने के लिए समर्थ नहीं हैं ।।३१॥ अब आचार्य औषधिदानका वर्णन करते है-जिस औषधिदानके द्वारा धर्मके साधनभूत व्रती पुरुषोंके शरीरकी रक्षा की जाती हैं, उस औषधि-दाता पुरुषके पुण्य-फल को कहने के लिए कोई समर्थ नहीं है ।।३२।। जो पुरुष औषधि-दाताके पुण्यफल को इस संसार में वचनोंसे कहना चाहता है, मानों वह समुद्र के जलको चुल्लुओंसे मापना चाहता है ।।३३।। जो पुरुष औषधि देता हैं, वह वात पित्त और कफसे उत्पन्न होनेवाले रोगोंसे पीडित नहीं होता हैं, जैसे कि जलमें स्थित पुरुष दावानलसे पीडित नहीं होता हैं ।। ६४॥ रोगोंसे पीडित हुआ योगी अपने व्रतके संरक्षणमें समर्थ नहीं हो सकता है । क्योंकि अस्वस्थ पुरुष आकुलताके कारण निराकुल स्वस्थ कार्य कदाचित् भी नहीं कर सकते है ।।३५।। औषधिदान देनेवाले पुरुषका शरीर रोग-सहित कभी नहीं हो सकता है क्योंकि अग्निका सेवन करने वाले पुरुषके पाससे तुषार दूर भाग जाता है।।३६।। १. मु.-रपि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ...
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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