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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३६५ आजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः । कि सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्येव महात्मनः ।। ७ विधानमेष कान्तीनां कीर्तीनां कुलमन्दिरम् । लावण्यानां नदीनाथो भैषज्यं येन दीयते ॥३८ ध्वान्तं दिवाकरस्येव शीतं चित्ररुचेरिव । भैषज्यदायिनस्त'द्वद्रोगित्वं प्रपलायते ||३९ आरोग्यं क्रियते येन योगिनां रोगमुक्तये । तदीयस्य न धर्मस्य समर्थः कोऽपि वर्णने । ४० चारित्रं दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायो विनयो नयः । सर्वेऽपि विहितास्तेन दत्तं येनौषधं सताम् ॥४१ संसृतिश्छिद्यते येन निर्वृतियेन दीयते । मोहो विधूयते येन विवेको येन जन्यते ॥४२ कषायो मद्यते येन मानसं येन शम्यते । अकृत्यं त्याज्यते येन कृत्यं येन प्रवर्त्यते ॥४३ तत्त्वं प्रकाश्यते येन येनातत्त्व निषिध्यते । संयमः क्रियते येन सम्यक्त्वं येत पोष्यते ॥ ४४ देहिभ्यो दीयते येन तच्छास्त्रं सिद्धिलब्धये । कस्तेन सदृशो धन्यो विद्यते भवनत्रये ॥४५ मुक्ति: प्रदीयते येन शास्त्रदानेन पावनी । लक्ष्मी सांसारिकों तस्य प्रददानस्य कः श्रमः ।।४६ लभ्यते केवलज्ञानं यतो विश्वावभासकम् । अपरज्ञानलामेष कीदृशी तस्य वर्णना ।।४७ मामरश्रियं भुक्त्वा भवनोत्तमपूजिताम् । ज्ञानदानप्रसादेन जीवो गच्छति निर्वतिम् ॥४८ चतुरङ्गं फलं येन दीयते शास्त्रदायिना। चतुरङ्ग फलं तेन लभ्यते न कथं स्वयम ।।४९ जिस पुरुषके शरीर में सन्ताप-जनक व्याधि जीवन भर नहीं होती हैं, सिद्धके समान उस महात्माके सुखका क्या वर्णन किया जा सकता हैं ॥ ७॥ जो पुरुष औषधि-दान देता हैं, वह कान्तिका विधान, कीर्तियोंका कुलमन्दिर और सौन्दर्यका सागर होता है। : ८॥ जैसे सूर्य के शरीरसे अन्धकार दर भागता हैं, और अग्निके शरीरसे शीत दर भागता हैं. उसी प्रकार औषधि देनेवाले गता हैं, उसी प्रकार औषधि देनेवाले पुरुषके शरीरसे रोगीपना दूर भागता हैं ।।३९।। जिस औषधिदानके द्वारा योगियोंको रोग-मुक्त कर उन्हें आरोग्य प्राप्त कराया जाता हैं, उस पुरुषके धर्मका फल वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं हैं ।।४०।। जिस पुरुषने सज्जनोंको औषधिदान दिया, उसने उन्हें चारित्र, दर्शन, ज्ञान, स्वाध्याय, विनय और नीति आदि सभी कुछ दिया, ऐसा समझना चाहिए ।-४ ॥ अब आचार्य शास्त्रदानका वर्णन करते है-जिस शास्त्रदान के द्वारा संसारका उच्छेद होता है, जिसके द्वारा निर्वति (मुक्ति) प्राप्त होती है, जिसके द्वारा मोह विनष्ट होता हैं, जिसके द्वारा विवेक उत्पन्न होता है, जिसके द्वारा कषायोंका मर्दन किया जाता है, जिसके द्वारा मन शान्त होता है, जिसके द्वारा अकृत्य छूटता है, जिसके द्वारा मनुष्य कर्तव्य कार्यमें प्रवृत्त होता है, जिसके द्वारा सत्त्वका प्रकाश होता है और जिसके द्वारा अतत्त्वका निषेध होता है, जिसके द्वारा संयम धारण किया जाता है और जिसके द्वारा सम्यक्त्व पुष्ट होता है, ऐसा शास्त्र-दान सिद्धिकी प्राप्तिके लिए जो प्राणियोंको देता है, उसके समान तीन भुवन में अन्य कौन धन्यपूरुष है? अर्थात् शास्त्रका दाता पुरुष तीनों लोकोंमें महान् धन्य है ।४२-४५॥ जिस शास्त्र-दानके द्वारा परमपावन मुक्ति प्रदान की जाती है, उस शास्त्र दानके सांसारिक लक्ष्मीको देने में क्या श्रम है ।।४६।। जिस शास्त्रदानके द्वारा समस्त विश्वका प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा अन्य ज्ञानोंके लाभमें उसका वर्णन कैसा! अर्थात् अन्य ज्ञानोंका पाना तो सहज ही है ।।४७।। ज्ञान-दानके प्रसादसे जीव तीनों लोकोंमें उत्तम एवं पूज्य मनुष्यों और देवोंकी लक्ष्मीको भोग कर मुक्तिको प्राप्त करता है ।।४८॥ जिस शास्त्रदानके करनेवाले पुरुषके द्वारा चार पुरुषार्थरूप चतुरंग फल दिया जाता है, उसके द्वारा वह शास्त्र-दाता पुरुष स्वयं ही चतुरंगफलको कैसे नहीं १. मु. देहाद् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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