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________________ श्रावकाचार-संग्रह शास्त्रदायो सतां पूज्यः सेवनीयो मनीषिणाम् । वादी वाग्मी कविर्मान्यः ख्यातशिष्यः प्रजायते ॥५० विचित्र रत्ननिर्माणः प्रोसुङ्गो बहुभूमिकः । लभ्यते वासवानेन वासश्चन्द्र करोज्ज्चलः ।।५१ कोमलानि महा_णि विशालानि धनानि च । वासोदानेन वासांसि सम्पद्यन्ते सहस्रशः ।।५२ ववती जनतानन्दं चन्द्रकान्तिरिवामला । जायते पानदानेन वाणी तापापनोदिनी । ५३ ददानः प्रासुकं द्रव्यं रत्नत्रितयबंहकम् । काङ्कितं सकलं द्रव्यं लभते परदुर्लभम् ॥५४ विश्राणयति यो दानं सेवमानस्तपस्विनः । सेव्यते भुवनाधीश: स तदादेशकाक्षिभिः ॥५५ यः प्रशंसापरो भूत्वा दानं यच्छति योगिनाम् । प्रशस्य: स सदा सद्भिजिनेन्द्र इव नम्यते ॥५६ दत्ते शुश्रूषयित्वा यो दानं संयमशालिनाम् । शुभ्रष्यते बुधरेष भक्त्या गुरुरिवानिशम् ।।५७ आवृत्य दीयते दानं साधुभ्यो येन सर्वदा । सावरेणव लोकेन निधानमिव गृह्यते ॥५८ पूजापरायणः स्तुत्वा यो यच्छति महात्मनाम् । त्रिदर्शस्तीर्थकारीव स्तावं स्तावं स पूज्यते ॥५९ यदयदानं सतामिष्टं तपः संयमपोषकम् । तत्तद्वितरता भक्त्या प्राप्यते फलमीप्सितम् ।।६० दानानीमानि यच्छन्ति स्तोकान्यपि महाफलम् । बीजानीव वटादीनां निहितानि विधानतः ॥६१ पायगा! शास्त्रका दान करनेवाला पुरुष सज्जनों के द्वारा पूज्य है,मनीषियोंसे सेवनीय है और वह वादी, वाग्मी, कवि, मान्य एवं प्रसिद्ध शिष्योंवाला होता है ।।४९-५०॥ अब आचार्य वसतिकादानका वर्णन करते है-साधुओंकी निवासके योग्य वसतिकाके दानसे मनुष्य नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित, अति उन्नत, अनेक मंजिलवाला और चन्द्रकी किरणोंसे भी उज्ज्वल प्रासादको प्राप्त करता है ।।५१।। अब आनार्य वस्त्रदान आदिका फल बतलाते हैं-आर्यिका श्राविका आदि साधर्मी जनोंको वस्त्रदान करनेसे कोमल, बहुमल्य विशाल और सघन सहस्रों वस्त्र प्राप्त होते हैं ।।५२।। व्रती पुरुषोंको पीने योग्य पानक प्रदान करनेसे चन्द्रकान्तिके समान निर्मल, जनताको आनन्द देनेवाली और सन्तापको दूर करनेवाली मधुर वाणी प्राप्त होती हैं ।।५३।। व्रती पुरुषोंको रत्नत्रयधर्म के बढानेवाले प्रासुक द्रव्यका दान करनेवाला पुरुष मनोवांछित एवं अन्य साधारणजनोंको दुर्लभ ऐसे सर्वद्रव्योंको प्राप्त करता है ।।५४|| जो पुरुष तपस्वियोंकी सेवा करता हुआ उन्हें दान देता हैं, वह सुखके वांछक ऐसे भुवनके स्वामी इन्द्रादिके द्वारा सदा सेवित होता हैं । जो पुरुष योगियोंकी प्रशंसा करता हुआ उन्हें दान देता है,वह पुरुष संसारमें सदा प्रशंसाको प्राप्त करता है, तथा सज्जनोंके द्वारा तीर्थंकरके समान नमस्कारको प्राप्त होता हैं ।।५५-५६।। जो सेवा-शुश्रूषा करके संयम-धारण करनेवाले पुरुषोंको दान देता हैं, वह विद्वानोंके द्वारा भक्तिके साथ निरन्तर गुरुके समान शुश्रूषाको प्राप्त करता हैं।। ५७।। जो आदरके साथ सदा साधुओंको दान देता है, वह दाता लोगों के द्वारा निधानके समान ही आदरके साथ ग्रहण किया जाता हैं ।।५८।। जो दाता पूजामें तत्पर होकर और स्तुति करके महात्माओंको दान देता हैं, वह तीर्थकरके समान इन्द्रोंके द्वारा बार बार स्तुति करके पूजा जाता हैं ॥५९।। जो दान तप और संयमका पोषक हैं,तथा सज्जनोंको अभीष्ट है, उसे भक्तिके साथ दान देनेवाला पुरुष अभीप्सित फलको प्राप्त करता हैं ।।६०॥ ये ऊपर कहे गये आहारादिक अल्प दान भी महान् फलको देते हैं। जैसे कि विधिपूर्वक भूमिमें बोये गये वट आदिके छोटे बीज महान् वृक्षरूप फलको देते हैं ।।६।। जो मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट पात्रोंको दान देता है, वह महान् उदयको प्राप्त होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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