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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३६७ पात्रेभ्यो यः प्रकृष्टभ्यो मिथ्यादृष्टिः प्रयच्छति । स याति भोगभूमीषु प्रकृष्टासु महोदयः ।।६२ क्रोशत्रयबपुस्तत्र त्रिपल्योपमजीवितः । चिन्ताकल्पितसान्निध्यं सम्भोगसुखमश्नुते ॥६३ सदा मनोऽनकलाभिः सेव्यमाना विवानिशम् । नारीभिर्न गतं कालं जानते भोगभूभुवः ॥६४ मध्यमानां तु पात्राणां दानतो याति मध्यमाम् । कारणस्यानुरूपं हि कार्य जगति जायते ।।६५ शिक्रोशोच्छ्यदेहोऽसौ द्विपल्यायुनिरामयः । स तत्रास्ते महावासः कान्ताऽऽस्याम्मोजषट्पदः ॥६६ जघन्येभ्यः स पात्रेभ्यो जघन्य याति दानतः । एककोशोच्छ्यो भूमिमेकपल्योपस्थितिः ॥६७ ।। बदरामलकविभीतकमात्रं त्रिद्वयेकवासरैः क्रमशः । आहारं कल्याणं दिव्यर भुञ्जते धन्याः ।।६८ विश्राणयन् यतीनामुत्तममध्यमजघन्यपरिणामः । दानं गच्छति भूमिरुत्तममध्यमजघन्यां वा ।।६९ सर्वे द्वन्द्वपरित्यक्ताः सर्वे क्लेशविजिता: । सर्वे यौवनसम्पन्ना: सर्वे सन्ति प्रियंवदाः । ७० मददैन्यश्रमायासक्रोधलोमभयक्लमाः । मुक्तानामिव नो तेषां नाप्यन्यत्र गमागमाः ॥७१ अयमेव विशेषोऽस्ति देवेभ्य! भोगभागिनाम् । यत्ते यान्ति मता नाकं देवास्तियनरत्वयोः ॥२ यतो मन्दकषायास्ते ततो यान्ति त्रिविष्टपम् । उक्तं तीव्रकषायत्वं दुर्गतः कारणं परम् ।।७३ दीयन्ते चिन्तिता भोगा येषां कल्पमहीरहैः । दशाङ्गः कः सुखं तेषां शक्तो वर्णयितुं गिरा ।।७४ उत्कृष्ट भोगभूमियोंमें जाता है ॥६२।। वहाँ पर उसे तीन कोशका शरीर मिलता है और तीन पल्योपमका आयुष्य प्राप्त होता है । वह वहाँपर चिन्तवन मात्रसे ही प्राप्त होनेवाले भोगोंका सुख भोगता है ।।६।। भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीव सदा मनोऽनुकूल स्त्रियोंके द्वारा रात्रि-दिन सेवा किये जाते हुए अपने व्यतीत होनेवाले समयको नहीं जानते है ।। ६४॥ मध्यमपात्रोंको दान देनेसे मिथ्यादृष्टि मनुष्य मध्यम भोगभूमिको प्राप्त होते हैं। क्योंकि संसारमें कारणके अनुरूप ही कार्य होता हैं ॥६५।। वहाँपर उसे दो कोश ऊँचा शरीर प्राप्त होता हैं, दो पल्योपम की आयु होती हैं, सदा नीरोग रहता है, महान् आवास प्राप्त होता है और सदा सुन्दर स्त्रियोंके नयनकमलका भ्रमर बना हुआ भोगोंको भोगता है ।।६६।। वह मिथ्यादृष्टि मनुष्य यदि जघन्य पात्रोंको दान देता है, तो उसके फलसे जघन्य भोगभूमिको प्राप्त होता हैं, जहाँपर एक कोश ऊँचा शरीर मिलता हैं और एक पल्योपमकी स्थिति होती हैं ।।६७॥ उपर्युक्त भोगभूमियोंमें क्रमसे तीन, दो और एक दिनमें वेर, आँवला और बहेडाप्रमाण कल्याणरूप दिव्य रसवाले आहारको वे भोगभूमिके धन्य पुरुष भोगते हैं अर्थात् खाते है ।।६८।। अथवा जो पुरुष साधुजनोंको उत्तम, मध्यम और जघन्य परिणामोंसे दान देता है, वह तदनुरूप उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमिको प्राप्त करता हैं । भोगभूमिके ये युगलिया सभी जीव आजीविकाके द्वन्द्वसे रहित होते हैं, सभी सर्व प्रकारके क्लेशोंसे रहित होते है, सभी नवयौवन सम्पन्न होते है और सभी प्रियवचन बोलते है ॥६९-७०।। उन भोगभूमियाँ जीवोंके मुक्त जीवोंके समान मद,दैन्य, श्रम, प्रयास,क्रोध,लोभ,भय और क्लेश नहीं होते है और न उनका अपने स्थानसे बाहिर गमनागमन होता है ।।७१।। देवोंसे भोगभूमियोंकी वह ही विशेषता है कि ये भोगभू मियाँ जीव मरकर देवलोकको जाते है और देव मरकर मनुष्य और तिर्यत्रोंमें उत्पन्न होते है ।।७२।। यतः ये भोगभूमिके जीव मन्द कषायवाले होते है, अतः मरकर देवलोक को जाते है। क्योंकि दुर्गतिका कारण तीव्र कषायपना कहा गया है ।।७।। जिन भोगभू मियोंको दशजातिके कल्पवृक्षोंसे मनोवांछित भोग प्राप्त होते हैं, उनके सुखको वाणीसे कहने के लिए कौन समर्थ है ।।७४ । १ म स भोग। २. मु भोगिनाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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