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श्रावकाचार-संग्रह
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न वियोगः प्रियः साधं न संयोगोऽप्रियैः सह । न व्रतं न तपस्तेषां न वैरं न परामवः ॥७५ यतः स्वस्वामिसम्बन्धस्तेषां नास्ति कदाचन । परच्छन्दानुवतित्वं ततस्तेषां कुतस्तनम् ।।७६ नापूर्णे समये सर्वे ते म्रियन्ते कदाचन । रचयन्ति न पशून्यं सुखसागरमध्यगाः ।।७७ आयासेन विना भोगी नीरोगीभूतविग्रहः । क्षुतेन पुरुषस्तत्र म्रियते जम्भयाऽगनाः ॥७८ ते जायन्ते कलालापं मकरध्वजसनिमाः । सर्वे भोगक्षमा रम्या दिनानां सप्तसप्तकैः ।।७९ । कोमलालापया कान्तः कान्तयाऽऽर्यो निगद्यते । कान्तेनाऽऽर्या पुनः कान्ता चित्रचाटुविधाधिना ॥८० आदेयाः सुभगा: सौम्या: सुन्दराङ्गा वशंवदाः । रमन्ते सह रामाभिः स्वसमाििमयो मुदा ।। ८१ युग्ममुत्पद्यते साधं युग्मं यत्र विपद्यते । शोकाक्रन्दादयो दोषास्तत्र सन्ति कुतस्तनाः।। ८२ करि-केसरिणौ यत्र तिष्ठन्तो बान्धवाविव । एकत्र सर्वदा प्रीत्या सख्यं तत्र किमुच्यते ।। ८३ कुपात्रदानतो याति कुत्सितां भोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते ॥८४ येऽन्तरद्वीपजा: सन्ति ये नरा म्लेच्छखण्डजा: । कुपात्रदानत: सर्वे ते भवन्ति यथायथम् ॥८५ वर्यमध्यजघन्यासु तिर्यञ्चः सन्ति भूष ये । कुपात्रदानवृक्षोत्थं भुञ्जन्ते तेऽखिला: फलम् ।।८६
उन भोगभूमिके जीवोंका न प्रियजनोंके साथ वियोग होता हैं और न अप्रिय जनोंके साथ संयोग ही होता है । उनके न व्रत है, न तप है, न वैरभाव है और न उनका कभी पराभव ही होता है ।।७५।। यत: उन भोगभूमियोंके परस्परमें स्वामी और सेवकका सम्बन्ध कभी भी नहीं हैं. अतः उनके दूसरोंकी इच्छाके अनुकूल चलना कैसे संभव है ॥७६।। वे सभी भोगभू मियां जीव समय पूर्ण होनेके पूर्व अकालमें कभी भी नहीं मरते है और न परस्परमें एक दूसरेके साथ पैशुन्यभाव ही रखते हैं। वे सदा सुख-सागरमें निमग्न रहते है ।।७७।। उन्हें विना परिश्रमके ही भोगोंकी प्राप्ति होती है,उनका शरीर सदा नीरोग रहता है । भोगभू मिया पुरुष आयु पूर्ण होने पर छींकसे मरता है और स्त्री जंभाईसे मरती है ।।७८।। वे भोगभूमियां जीव मधुर-भाषी और कामदेवके सदृश सुन्दर होते हैं । तथा जन्म लेनेके बाद सात सप्ताहमें अर्थात् ४९ दिनोंमें भोग भोगने में समर्थ पूर्ण युवावस्थाको प्राप्त हो जाते है ।।७९।। भोगभूमिया स्त्री अति मधुरवाणीसे अपने पतिको 'आर्य' कह कर सम्बोधन करती हैं और नाना प्रकारकी चाटकारी करनेवाला पुरुष अपनी स्त्रीको 'आर्या, आर्ये' कह कर सम्बोधन करता हैं ।।८०।। वे भोगभूमियां मनुष्य आदरणीय, सौभाग्यसम्पन्न, सौम्य, सुन्दर शरीर और प्रियवचन बोलने वाले होते हैं। तथा वे सदा ही अपने समान ही वय-रूपशालिनी स्त्रियोंके साथ हर्षसे परस्पर रमते रहते हैं ।। ८१।। यतः जिस भोगभूमिमें स्त्री-पुरुष युगलरूपसे एक साथ ही उत्पन्न होते है और एक साथ ही विनाशको प्राप्त होते हैं, अतः वहाँ पर शोक, आक्रन्दन, रोदन आदि दोष कैसे हो सकते हैं? अर्थात् वहां पर उत्पन्न होनेवालों के जीवन में कभी भी शोक आदिका अवसर नहीं आता है ।।८।। जिस भोगभमिमें हाथी और सिंह जैसे जाति-विरोधी जीव भी बन्धु-जनोंके समान एक स्थान पर सर्वदा प्रीतिसे रहते है, वहां पर उनकी मित्रताका क्या कहता है ।।८३।। कुपात्रोंको दान देनेसे मनुष्य कुभोगभूमिम जाता है, क्योंकि खोटे क्षेत्रमें बीजके बोने पर कौन पुरुष सुक्षेत्रके फलको प्राप्त कर सकता है ॥८४॥ जो अन्तरद्वीपज मनुष्य है और जो म्लेच्छखंडज मनुष्य है वे सब यथा संभव कुपात्र दानसे उत्पन्न होते है ।।८५॥ उत्तम मध्यम और जघन्य भोगभूमियोंमें जो तिर्यंच है, वे सब कुपात्रदानरूप वृक्षसे उत्पन्न हुए फलको भोगते है ।।८६।। यहां आर्यखण्ड में जो दासी. दास और म्लेच्छ पुरुष, तथा हाथी, कुत्ते आदि पशु जो भोग भोगते हुए दिखाई देते है, उनके वे भोग निश्चयसे
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