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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः दासीदास द्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये । कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ॥८७ दृश्यन्ते नीचजातीनां ये भोगा भोगिनामिह । सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयन्ते महोदयाः ॥८८ अपात्राय धनं दत्तं व्यर्थं सम्पद्यतेऽखिलम् । ज्वलिते पावके क्षिप्तं बीजं कुत्राङ्कुरीयत ॥८९ अपात्रदानतः किञ्चिन्न फलं पापतः परम् । लभ्यते हि फलं खेदो वालुका पुञ्जपीडने ॥९० विश्राणितमपात्राय विधत्तंऽनर्थमूजितम् 1 अपथ्यं भोजनं दत्ते व्याधि कि न दुरुद्धरम् ।।९१ संस्कृत्य सुन्दरं भोज्यं येनापात्राय दीयते । उत्पाद्य प्रबलं धान्यं दह्यते तेन दुधिया ॥ ९२ शीघ्रपात्रेण संसारादेकेनापि महीयसा । तार्यन्ते बहवो लोकाः पोतेनेव पयोनिधेः ।। ९३ जगदुद्योतते सर्वमेकेनापि विवस्वता । नक्षत्र निवहैः सर्वैरुदितेरपि नो पुनः ॥ ९४ एकेनापि सुपात्रेण तार्यते भवनीरधेः । सहस्रं रप्यपात्राणां पुञ्जितैर्न पुनर्जनः ||९५ अपात्रदानदोषेभ्यो बिभ्यता पुण्यशालिना । विबुध्य यत्नतः पात्रं देयं दानं विधानतः ॥ ९६ अपात्राय धनं दत्ते यो हित्वा पात्रमुत्तमम् । साधुं विहाय चौराय धनमर्पयति स्फुटम् ।।९७ अपात्रमिव यः पात्रं विबुद्धिरवलोकते । चिन्तामणिमसौ मन्ये मन्यते लोष्ठसन्निभम् ॥ ९८ त्यक्त्वा शर्मप्रदं पात्रमपात्रं स्वीकरोति यः । स कालकूटमादत्ते मुक्त्वा पीयूषमस्तधीः ॥९९ कुपात्रदानसे प्राप्त हुए जानना चाहिए ॥ ८७ ॥ तथा यहां पर नाना प्रकारके भोगोंको भोगने वाले नीच जाति के जा भाग्यशाली लोग दिखाई देते हैं, वे सब कुपात्रदानसे दिये गये भोग है ॥८८॥ ३६९ ( जो पुरुष व्रत और सम्यक्त्वसे रहित एवं उन्मार्गगामी होता है, उसे अपात्र कहते हैं । ) ऐसे अपात्र के लिए दिया गया समस्त धन व्यर्थ जाता हैं। क्योंकि जलती हुई अग्निमें फेंका गया बीज कहां अंकुरित हो सकता हैं ॥ ८९ ॥ अपात्रोंको दान देनेसे पापके सिवाय और कुछ भी फल नहीं हैं। क्योंकि बालूके पुंजके पेलने पर खेदरूप फल ही प्राप्त होता है ।। ९० ।। कभी कभी तो अपात्र के लिए दिया गया दान महान् अनर्थ को करता है। रोगी पुरुषको दिया गया अपथ्य भोजन क्या दुरुद्धर व्याधिको नहीं उत्पन्न करता है? करता ही है । ९५१|| जो पुरुष सुन्दर भोजन बना करके अपात्र के लिए देता है, वह दुर्बुद्धि उत्तम धान्य उत्पन्न करके उसे जलाता है ॥९२॥। इसलिए अपात्रको कभी दान नहीं देना चाहिए। जैसे एक जहाजके द्वारा बहुत से लोग समुद्रके पार उतार दिये जाते है, उसी प्रकार एक ही गरिष्ठ पात्र के द्वारा अनेक लोग संसारसागर से पार उतार दिये जाते है । ९३|| देखो - एक ही सूर्यके द्वारा सारा जगत् प्रकाशित हो जाता है, किन्तु शदयको प्राप्त सर्व नक्षत्रोंके समूहोंसे भी सारा जगत् प्रकाशित नहीं होता ॥ ९४ ॥ इसी प्रकार एक ही सुपात्रके द्वारा अनेक जीव संसार सागर से पार उतार दिये जाते हैं, किन्तु सहस्रों अपात्रोंके समूह द्वारा एक भी जन संसार-सागर से पार नहीं उतरता हैं ।। ९५ ।। इस प्रकार अपात्र दान के दोषोंसे डरनेवाले पुण्यशाली पुरुषों को प्रयत्न पूर्वक पात्रका ज्ञान करके विधिसे उसे दान देना चाहिए || ९६ || जो पुरुष उत्तम पात्रको छोडकर अपात्र के लिए दान देता है, वह निश्चयसे साधु पुरुषको छोडकर चोरके लिए धन अर्पण करता है || ९७|| जो निर्बुद्धि पुरुषपात्र को भी अपात्र के समान देखता है, वह चिन्तामणि रत्नको लोष्टके समान समझता हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥ ९८ ॥ जो पुरुष सुख देनेवाले पात्रको छोडकर दुःखदायी अपात्रको स्वीकार करता हैं, १. मु दुरुत्तरम् । २. मु. गरायसा । वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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