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३७.
श्रावकाचार-संग्रह पात्रापात्रविभागेन मिथ्यादृष्टेरिदं फलम् । उदितं दान प्राज्यं सम्यग्दृष्टेर्वदाम्यतः ॥१०० दानं त्रिविधपात्राम सम्यग्दृष्टिर्यथागमम् । ददानो लमते याच्या कल्याणानां परम्पराम् ।।१०१ पात्राय विधिना दत्वा दानं मत्वा समाधिना । अच्युतान्तेषु कल्पेषु जायन्ते शुद्धदृष्टयः ॥१०२ उत्पद्योत्पादशय्यायां देहोद्योतितपुष्कराः । सुप्तोत्थिता इव क्षिप्रमुत्तिष्ठन्ति दिवौकसः ॥१०३ निषण्णस्तत्र शय्यायां तोक्ष्यन्ते समन्ततः । निकाया देव-देवीनां रचिताञ्जलिकुडमलाः ॥१०४ स्तुवाना मां स्तवैः श्रव्यदिव्याभरणभासुराः । मूर्ताः केऽमी विलोक्यन्ते पुण्यपुजा इवाभितः।।१०५ रभ्या रामा मयेमाः काश्चित्रचापरायणाः । लावण्याम्बनिधर्वेला लोक्यन्ते कलनिस्वनाः ॥१०६ किमिदं दृश्यते स्थानं रामणीयकमन्दिरम् । कथमत्राहमायात: कि स्वप्नोऽयमुतान्यथा ।।१०७ किमकारि मया पुण्यं यातो येनात्र बन्धुरे । न पुण्यव्यतिरेकेण लभते सुखसम्पदम् ।।१०८ इत्थं चिन्तयतां तेषां भवकारणकोऽवधिः । सम्पद्यते तरां दीप्रः पूर्वसम्बन्धसूचकः ॥१०९ ज्ञानेन तेन विज्ञाय दानपुण्यप्रभावतः । त्रिदशीभूतमात्मानं ते व्रजन्ति सुखासिकाम् ॥११० प्रीतेनामरबर्गेण स्वसम्बन्धेन सादरम् । क्रियमाणं ततस्तुष्टा भजन्ते जननोत्सवम् ॥१११ ज्ञात्वा धर्मप्रसादेन तत्र प्रभवमात्मनः । पूजयन्ति जिनास्तेि भक्त्या धर्मस्य वृद्धये ११२ नष्टबुद्धि पुरुष अमृतको छोडकर कालकूट विषको ग्रहण करता है।।९९।। यह दानसे उत्पन्न होने वाला फल पात्र-अपात्रके विभागसे मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे कहा । अब इससे आगे सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा पात्र-दानके फलको कहते है ।। १००।। सम्यग्दृष्टि पुरुष तीन प्रकारके पात्रोंके लिये आगमके अनुसार दान देता हुआ प्रार्थनीय कल्याणोंकी परम्पराको प्राप्त होता हैं।।१०।। पात्रके लिये विधि-पूर्वक दान देकर और समाधिके साथ मरण करके शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव अच्युत पर्यन्त सोलह स्वर्गामें उत्पन्न होते है॥१०२।। वहां स्वर्गों में उत्पादशय्या पर उत्पन्न होकर अपने शरीरकी कान्तिसे आकाशको प्रकाशनान करते हुए वे देव लोग सोकर उठे हुए के समान शीघ्र उठ बैठते हैं ।।१०३॥ उस उत्पादशय्या पर बैठे बैठे ही देव लोग अपने चारोंओर हाथों की अंजलि बांधे हए देव और देवियोंके समुदायोंको देखते है ।।१०४।। और विचारते है कि सुनने योग्य सुन्दर स्तवनोंसे मेरी स्तुति करते हुए, भव्य आभरणोंसे भासुरायमान मूर्तमान् पुण्य-पुंजके समान ये कौन मेरे चारों ओर दिखाई दे रहे हैं? ||१०५॥ नाना प्रकारकी चाटुकारी करने में परायण, कल-कल मधुर शब्द बोलने वाली, सौन्दर्य-सागरकी वेलाके समान ये रमणीक कौनसी स्त्रियां देख रही हैं ॥१०६॥ यह अत्यन्त रमणीक भवनवाला कौन सा स्थान मुझे दिखाई दे रहा हैं? मै ऐसे दिव्य स्थान पर कैसे आया हूँ? अथवा क्या यह सब स्वप्न हैं ।।१०७।। मैने पूर्णजन्म में क्या पुण्य किया हैं कि मैं ऐसे सुन्दर स्थानमें उत्पन्न हुआ हूँ। क्योंकि पुण्यके विना ऐसी सुखसम्पदा नहीं प्राप्त होती हैं ।।१०८।। इस प्रकार चिन्तवन करते हुए उन देवोंके पूर्वरूपके सम्बन्धका सूचक, अति देदीप्यमान भव-कारणक अवधिज्ञान उत्पन्न होता है ।।१०९।। उस ज्ञानके द्वारा यह जानकर कि मै दानके पुण्य-प्रभावसे यहां देव लोक में देव उत्पन्न हुआ हूँ' वे लोग सुखरूप समाधानको प्राप्त होते हैं । ११०॥ तत्पश्चात् प्रीतिको प्राप्त हुए देवगण सादर अपने अपने सम्बन्धको प्रकट करके सन्तुष्ट होते हुए उनका जन्मोत्सव करते हैं और वे देवगण जन्मोत्सवके आनन्दका उपभोग करते है ॥१११॥
तदनन्तर धर्मके प्रभावसे स्वर्गलोकमें अपना जन्म जान कर वे देवगण धर्मकी और भी वृद्धिके लिये भक्तिके साथ जिन भगवान्का पूजन करते है।।११२॥ वे देवगण अपने प्रतिबिम्बके
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