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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३७१ . सुखवारिधिमग्नास्ते सेव्यमाना: सुधाशिभिः । सर्वदा व्यवतिष्ठन्ते प्रतिबिम्बैरिवात्मनः ।।११३ ते सर्वे क्लेशनिर्मुक्ता द्वाविंशतिमवन्वताम् । आसते तत्र भञ्जाना दानवक्षफलं सुराः ।१५४ तेषां सुखप्रमा वक्ति वचोभिर्यो महात्मनाम् । प्रयाति पदविक्षेपैगंगनान्तमसो ध्रुवम् ॥११५ नवयौवनसम्पना दिव्यभूषणभूषिताः । ते वरेण्यादिसंस्थाना जायन्तेऽन्तर्मुहूर्ततः ।।११६ तेषां खेदमदस्वेदजरारोगादिवजिता: । जायन्ते भास्कराकारा: स्फाटिका इव विग्रहाः ॥११७ राजते हृदये तेषां हार यष्टिविनिर्मला । निसर्गसम्भवा मूर्ता सम्यग्दृष्टिरिव स्थिता ॥११८ मुकुटो मस्तके तेषामुद्योतितदिगन्तरः । निषधानामिवादित्यं तमोऽवंसी विभासते ।।११९ निधुवनकुशलाभिः पूर्णचन्द्राननाभि: स्तनभरविनतामिमन्मथाध्यासिताभिः । पृथुतरजघनाभिर्बन्धुराभिर्वधूभिः सभममलवचोमिः सर्वदा ते रमन्ते ॥१२० दिवोऽवतीर्योजितचित्तवृत्तयो, महान भावा भुवि पुण्यशेषतः । भवन्ति वशेषु धाचितेषु विशुद्धसम्यक्त्वधना नरोत्तमाः ।। १२१ अवाप्य ते चक्रधरादिसम्पदं मनोरमामत्र विपुण्यदुर्लभाम । नयन्ति कालं निखिलं निराकुला न लभ्यते किं खलु पात्रदानतः ॥१२२ निषेव्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणी, प्रथीयसी द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ज्ञानकृशानुनाऽखिलं, श्रयन्ति सिद्धि विगतापदं सदा ॥१२३ समान अन्य देवोंसे सेवित होते हुए सदा सुख-सागरमें निमग्न रहते हैं ।।११३।। वे देवगण सदा सर्व प्रकारके क्लेशोंसे विमुक्त रहते है, और दानरूप वृक्ष के फलको भोगते हुए बाईस सागरोपम काल तक स्वर्ग लोकमें रहते है ।।१ ४ । उन महान् भाग्यशाली देवोंके सुखके प्रमाणको जो पुरुष वचनोंसे कहना चाहता है, वह निश्चयसे एक एक पद-निक्षेप करते हए अनन्त आकाशके अन्तको जाना चाहता हैं ।।११५।। वे देव सदा नवयौवनसे सम्पन्न रहते है, दिव्य आभषणों से भषित रहते है, उत्तम प्रथम समचतुरस्रसंस्थानके धारक होते हैं, और अन्तर्मुहूर्तमें ही वे उत्पन्न हो जाते हैं ॥११६।। उन देवोंके शरीर खेद, मल, प्रस्वेद, जरा, रोग आदिसे रहित और स्फटिक मणिके समान स्वच्छ प्रकाशमान आकार वाले होते है ।। ११७।। उनके वक्षःस्थल पर अति निर्मल हारोंकी लडी इस प्रकार शोभित होती हैं, मानों स्वभावसे उत्पन्न हुई मूर्तरूप सच्ची दष्टि ही हृदय पर अवस्थित है ।।११८।। उन देवोंके मस्तक पर दिशाओंके अन्तरालको प्रकाशित करनेवाला मकुट इस प्रकार शोभित होता है, मानों निषध पर्वत पर अन्धकारका ध्वंस करनेवाला सूर्य ही प्रकाशमान हो रहा है । ११९।। वे देव सदा ही काम सेवनमें कुशल, पूर्ण चन्द्रके समान मुखवाली, स्तनोंके भारसे नम्रीभत, कामदेवसे व्याप्त, विशाल जघनवाली और निर्मल वचन बोलनेवाली सुन्दर स्त्रियोंके साथ रमण करते रहते है ।। १२०।। वे लोग स्वर्गसे अवतरण करके शेष पुण्यके प्रभावसे विद्वत्पूज्य वंशोंमें उदार चित्तवृत्तिवाले, विशुद्ध सम्यक्त्वरूप धनके धारक मनुष्योंमें उत्तम ऐसे महानुभाववाले महा मानव उत्पन्न होते है ।१२१।। वे जीव इस मनुष्य भवमें पुण्यहीन जनोंको अतिदुर्लभ ऐसी चक्रवर्ती आदिको मनोरम सम्पदाको पाकर निराकुल रहते हुए अपने समस्त जीवन-कालको व्यतीत करते है। क्योंकि पात्र दानके पुण्यसे क्या नहीं प्रााप्त होता? अर्थात् सभी कुछ प्राप्त होता है ।।१२२।। इस प्रकार मनुष्य और देवोंके दो-तीन भवोंमें सुखकारिणी विशाल लक्ष्मीका उपभोग करके ध्यानरूप वन्हिके द्वारा समस्त पाप कर्मोको जला करके वे सदाके लिए सर्व आपदाओंसे रहित सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होते है ॥१२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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