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________________ ३७२ श्रावकाचार-संग्रह विधाय सप्ताष्टभवेषु वा स्फुट जघन्यतः कल्मषकक्षकर्तनम् । वजन्ति सिद्धि मुनिदानवासिता व्रतं चरन्तो जिननाथभाषितम् ॥१२४ पात्रदानमहनीयपादप: शुद्धदर्शनजलेन वद्धितः। यद्ददाति फलचित सतां, तस्य को भवति वर्णने क्षमः ।।१२५ गणेशिनाऽमितगतिना यदीरितं, दानजं फलमिदमीर्यते परैः।। विभासितं दिनमणिना यदम्बरं भास्यते कथमपि दीपकैरिदम् ।।१२६ इत्यमितगत्याचार्यकृतोपासकाचारे एकादशः परिच्छेदः ॥११॥ द्वादशः परिच्छेदः भावद्रव्यस्वभावा यैरुन्नता: कर्मपर्वताः । विभिन्ना ध्यानवज्रेण दुःखव्यालालिसकुलाः ।।१ कर्मक्षयभवाः प्राप्ता मुक्तिदूतीरपच्छिद: । नवकेवललब्धीर्ये पञ्चकल्याणभागिनः ॥२ सर्वभाषामयी भाषा बोधयन्ती जगत्त्रयीम् । आश्चर्यकारिणी येषां ताल्वोष्ठस्पन्दजितः ॥३ वचांसि तापहारीणि पयांसीव पयोमुचः । क्षिपन्तो लोकपुण्येन भूतले विहरन्ति ये ॥४ प्रातिहार्याष्टकं कृत्वा येषां लोकातिशायिनीम् । सपर्या चक्रिरे सर्वे सादरा भुवनेश्वराः ।।५ येषामिन्द्राज्ञया यक्ष: स्वर्गशोभाभिभाविनीम् । करोत्यास्थायिकों कीर्णा लोकत्रितयजन्तुभिः ॥६ आद्यसंहतिसंस्थाना निःस्वेदा क्षीरशोणिता । राजते सुन्दरा येषां सुगन्धिरमला तनः ॥७ अथवा जघन्यरूपसे सात-आठ भवोंमें पापोंकी कक्षाका क्षय करके मुनिदानकी वासनासे वासित वे जीव जिननाथसे भाषित व्रतोंका आचरण करते हुए सिद्धिको प्राप्त होते हैं ।।१२४॥ शुद्ध सम्यग्दर्शनरूप जलसे बढाया गया यह पात्र दानरूप महान् वृक्ष सज्जनोंको जो उत्तम फल देता हैं, उसका वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता हैं? कोई भी नहीं ।।१२५ ।। अमित ज्ञानके धारक गणधर देवोंने दानका जो फल वर्णन किया है, वह दूसरे सामान्य लोगोंके द्वारा नहीं कहा जा सकता है । जो आकाश दिनमणि सूर्यके द्वारा प्रकाशित होता है, वह दीपकोंके द्वारा किसी भी प्रकारसे प्रकाशित नहीं हो सकता हैं ॥१२६।। इस प्रकार अमितगति-विरचित उपासकाचार में ग्यारहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। अब आचार्य जिनदेवकी पूजाका महत्त्व बतलाते हुए पहले जिनदेवके स्वरूपका वर्णन करते हैं-जिन्होंने द्रव्य और भावस्वरूपकी अपेक्षा अति उन्नत और दुःखरूप सॉंकी पंक्तिसे व्याप्त ऐसे कमरूप पर्वतोंको ध्यानरूप वज्रके द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया हैं, जिन्होंने पापोंके छेदनेवाली तथा कर्मक्षयसे उत्पन्न हुई नव केवललब्धियोंको मुक्तिरूपी स्त्रीकी दूतीके समान प्राप्त कर लिया हैं जो गर्भ-जन्मादि पंच कल्याणकोंके धारक हैं, जिनकी सर्व भाषामयी भाषा तीनों जगत्को प्रबोध करनेवाली है, और तालु ओष्ठके संयोगसे रहित होनेके कारण जगत्को आश्चर्य करनेवाली है, और जैसे मेध सन्तापहारी जलको बरसाते हैं, उसी प्रकार जो जगत्के सन्तापको हरनेवाले वचनोंको वर्षा करते हुए लोगोंके पुण्यसे इस भूतल पर विहार करते है, भुवनके ईश्वर इन्द्रादिक जिनके समीप आठ आश्चर्यकारी प्रातिहार्योको रच कर आदरके साथ जिनको लोकातिशायिनी पूजाको करते है, इन्द्रकी आज्ञासे यक्ष स्वर्गकी शोभाको भी तिरस्कृत करनेवाली और तीन जगत्के प्राणियोंसे व्याप्त ऐसी जिनकी आस्थायिका (सभाभमि-या समवसरण) को रचता है, जिनका शरीर आद्य वज्रवृषभनाराचसंहनन और आद्य समच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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