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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः येषां द्विष्ट: क्षयं याति तुष्टो लक्ष्मी प्रपद्यते । न रुष्यन्ति न तुष्यन्ति ते तयोः समवृत्तयः ।।८ लक्ष्मी सातिशयां येषां भवनत्रयतोषिणीम् । अनन्यभाविनी शक्तो वक्तुं कश्चिन्न विद्यते ॥९ रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादयोऽखिला: । येष दोषा न तिष्ठन्ति तप्तेष नकुला इव ॥१० शक्तितो भक्तितोऽर्हन्तों जगतीपतिपूजिताः । ते द्वेधा पूजया पूज्या द्रव्यभावस्वरूपया' ॥११ वचोविग्रहसङ्कोचो द्रव्यपूजा निगद्यत । तत्र मानससङ्कोचो भावपूजा पुरातनः ॥१२ गन्धप्रसूनसान्नाय दीपधूपाक्षतादिभिः । क्रियमाणाऽथवा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ।।१३ व्यापकानां विशुद्धानां जिन नामनुरागतः । गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ।।१४ द्वेधाऽपि कुवत. पूजा जिनानां जितजन्मनाम् । न विद्यते यो लोके दुर्लभं वस्तु पूजितम् ॥१५ यैः कल्मषाष्टक प्लुष्टं विशुद्धध्यानतेजसा । प्राप्तमष्टगुणश्वर्यमात्मनीनमनव्ययम् ।।१६ क्षुधातृषाश्रमस्वेदनिद्रातोषाधमावतः । अन्नपानासनस्नानशयनाभरणादिभिः ।।१७ सुधादिनोदनर्येषां नास्ति जातु प्रयोजनम् । सिद्ध हि वांछिते कार्ये काणान्वेषणं वृथा 1॥१८ कर्मव्यपायतो येषां न पुनर्जन्म जायते । विलयं हि गते बोजे कुतः सम्पद्यतेऽङ्कुरः ।। १९ तुरस्र संस्थानवाला है, प्रस्वेदरहित हैं,क्षीर वर्णका रुधिर हैं,ऐसा निर्मल सुगन्ध मय जिनका सुन्दर शरीर शोभाको प्राप्त हो रहा है, जिनसे द्वेष करने वाला क्षयको प्राप्त होता हैं और सन्तुष्ट होनवाला लक्ष्मीको प्राप्त होता है, फिर भी जो दोनों में समवृत्ति रहते हुए न किसीसे रुष्ट होते है, और न किसीसे सन्तुष्ट ही होते है, जिनकी तीन भवनको सन्तोष देनेवाली और अन्यमें नहीं पाई जानेवाली ऐसी सातिशय लक्ष्मीका वर्णन करने के लिए कोई भी पुरुष समर्थ नहीं है, जिनमें राग द्वेष मद वेध लोभ मोह आदिक सभी दोष सर्वथा नहीं पाये जाते है, जैसे कि तप्त स्थानों पर नेवले नहीं पाये जाते है, एसे तीनों लोकोंके स्वामियोंसे पूजित अरहन्तदेव द्रव्य और भावस्वरूप दो प्रकारके पूजनके द्वारा शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक पूजनीय है ।।१-१२॥ वचन और शरीरका संकोच करना अर्थात् अन्य क्रियाएँ रोककर जिनेन्द्रदेवके सन्मुख करना. यह द्रव्यपूजा कही जाती है। तथा मनका संकोच करना अर्थात् मनको अन्य ओरसे हटाकर जिन भक्तिमें लगाना इसे पुरातन पुरुषोंने भावपूजा कही हैं ।।१२।। अथवा गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, अक्षत आदिसे विधिपूर्वक की जानेवाली पूजाको द्रव्धपूजा जानना चाहिए । और जिनेन्द्रदेवोंके व्यापक विशुद्ध गुणोंका परम अनुरागसे जो बार-बार चिन्तवन करना सो यह भावपूजा कही जाती है।।१३-१४।। संसारको जीतनेवाले जिनेन्द्रदेवोंकी दोनों ही प्रकारसे पूजा करनेवाले पुरुषको दोनों ही लोकोंमें कोई भी श्रेष्ठ वस्तु पाना दुर्लभ नहीं है ।।१५।। __जिन्होंने विशुद्ध ध्यानके तेजसे आठो कर्माका विनाश करके अपने अक्षय स्वरूपवाले आठ गण रूप ऐश्वर्यको प्राप्त कर लिया हैं, भूख, प्यास,भ्रम,प्रस्वेद, निद्रा,हर्ष,विषाद आदिके अभाव होनेसे जिनके क्षुधा आदिके दूर करनेवाले अन्न, पान, आसन, स्नान, शयन और आभूषण आदिसे जिन सिद्ध भगवन्तोंके कदाचित् भी कोई प्रयोजन नहीं रहा है, क्योंकि वांछित कार्य के सिद्ध हो जाने पर कारणोंका अन्वेषण करना वृथा हैं ।। १६-१८।। कर्मोका अभाव हो जानेसे जिनके संसारमें पुनः जन्म नहीं होता हैं, क्योंकि बीजके ही विनष्ट हो जाने पर अंकुर कैसे उत्पन्न हो सकता है ।।१९।। जिनके कर्म-जनित राग-द्वेषादिक कोई भी दोष नहीं पाये जाते है, क्योंकि निमित्तके नहीं १. मु. स्वभावया। २. मु. सान्नाह्य। ३. मु. प्लष्ट्वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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