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________________ ३६२ श्रावकाचार-संग्रह एकादशः परिच्छेदः फलं नाभयदानस्य वक्तुं केनापि पार्यते । यस्याऽऽकल्पं मुख जिव्हा व्याप्रियन्ते सहस्रशः ॥१ धर्माऽऽर्थकाममोक्षाणां जीवितं मलमिष्यते । तदक्षता न कि दत्तं हरता तन्नं कि हृतम् ।। २ गोपालब्राह्मणस्त्रीतः पुण्यभागी यदीष्यते । सर्वप्राणिगणत्रायी नितरां न तवा कथम् ।। ३ यद्यकमेकदा जीवं त्रायमाणः प्रपूज्यते । न तथा सर्वदा सर्व त्रायमाणः कथं बुधः ॥ ४ चामीकरमयीमुरू ददानः पर्वतैः सह । एकजीवाभयं नूनं दवानस्य समः कुतः ।। ५ गुणानां दुरवापाणामथितानां महात्मभिः । दयालुर्जायते स्थान मणीनामिव सागरः ॥ ६ संयमा नियमाः सर्वे दयालोः सन्ति देहिनः । जायमाना न दृश्यन्ते भूरुहा धरणीमते ॥ ७ कारणं सर्ववैराणां प्राणिनां विनिपातनम् । तत्सदा त्यज्यतस्त्रेधा कुतो वैरं प्रजायते ।। ८ मनोभूरिव कान्ताङ्गः सुवर्णाद्रिरिवः स्थिरः । सरस्वानिव गम्भीरो भास्वानिव हि भासुरः ।। ९ आदेयः सुभगः सौम्यस्त्यागी भोगी यशोनिधिः । भवत्यभयदानेन चिरंजीवी निरामयः ॥ १० तीर्थकृच्चक्रिदेवानां सम्पदो बुधवन्दिताः । क्षणेनाभयदानेन दीयन्ते दलितापद: ११ तदस्ति न सुखं लोके न भूतं न भविष्यति । यन्न सम्पद्यते सद्यो जन्तोरभयदानतः ।। १२ अब आचार्य सर्वप्रधान अभयदानका फल वर्णन करते है जिसके मुखमें हजारों जिव्हाएं हों, ऐसा व्यक्ति भी यदि कल्प काल-पर्यन्त अभयदानके फलको कहने के लिए व्यापार करे, तो भी वह कहनेको समर्थ नहीं हो सकता हैं।।१। धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोका मूल कारण जीवन कहा जाता हैं। उस जीवनकी रक्षा करने वालेने क्या नहीं दिया? और जीवनको हरण करने वालेने क्या नहीं हरा ।।२।। गाय बालक ब्राह्मण और स्त्री इनकी रक्षा करनेसे यदि मनष्य पूण्यभागी कहा जाता हैं, तो सर्व प्राणि-समहकी रक्षा करने वाला अधिक पूण्यभागी कैसे नहीं होगा? अर्थात् प्राणिमात्रका रक्षक सर्वाधिक पूण्यभागी है।३।। यदि एक बार एक जीवकी रक्षा करने वाला जगत्में पूजा जाता हैं, तो सर्वदा सर्व प्राणियोंकी रक्षा करनेवाला पुरुष ज्ञानियोंके द्वारा कैसे नहीं पूजा जायगा॥४॥ सर्व पर्वतोंके साथ सुवर्णमयो पृथ्वीको देनेवाला पुरुष एक जीवको अभय दान देनेवाले पुरुषके साथ निश्चयसे कैसे समान हो सकता हैं? नहीं हो सकता ।।५।। जिस प्रकार सर्व प्रकारके मणियोंका स्थान समुद्र है,उसी प्रकार अति दुर्लभ और महात्माओंसे पूजित सर्व गुणोंका स्थान दयालु पुरुष होता हैं ॥६॥ दयालु पुरुषके सभी संयम और नियम स्वतः होते है। क्योंकि पृथ्वीके विना वृक्ष उत्पन्न होते हुए नहीं दिखाई देते हैं ॥७॥ प्राणियों का विनाश सर्व प्रकारके वैर-भावों का कारण है इसलिए प्राणियों के विनाशको मन वचन कायसे सदा त्याग करनेवाले पुरुषके वैरभाव कैसे प्रवृत्त हो सकता है ॥८॥ अभयदानके फलसे जीव कामदेवके समान सुन्दर देह वाला होता हैं, सुवर्णाचलके समान स्थिर होता है, सागरके समान गम्भीर होता है, सूर्यके समान भास्वर होता हैं, सर्व लोगोंका प्यारा होता हैं, सौभाग्यशाली होता हैं, सौम्यमूत्ति होता है, त्यागी होता हैं, भोगवान् और यशोनिधान होता हैं, एवं नीरोग तथा चिरजीवी होता हैं ।।९-१०।। संसारमें आपत्तियोंको दूर करने वाली और विद्वानोंसे वन्दित जितनी भी तीर्थकर, चक्रवर्ती और देवोंकी सम्पदाएं है, वे सब अभयदानके द्वारा क्षणभरमें दी जाती हैं ।।११।। इस संसारमें ऐसा कोई सुख न हैं न भूतकाल में था और न आगामी काल में होगा, जो जीवको अभयदानसे शीघ्र न प्राप्त होता १. मु. भास्वरः।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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