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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
दिने दिने ये परिचर्यमाणा विवर्धमान): परिपीडयन्ति । ते कस्य रोगा इव सन्ति मोंगा बिनिन्दनीया विदुषोऽर्थनीयाः ॥ ७० प्रयच्छन्ति सौख्यं सुराधीश्वरेभ्यो न ये जातु भोगाः कथं ते परेभ्यः । निशुम्भन्ति ये मत्तमत्र द्विपेन्द्रं न कण्ठीरवास्ते फुरङ्गं त्यजन्ति ॥ ७१ न याचनीया विदुषेति दोषं विज्ञाय रोगा इव जातु भोगाः । कि प्राणहारित्वमवेक्ष्यमाणो जिजीविषुः खादति कालकूटम् ।। ७२ सम्पद्यमानाः सुरमनुजभवारिचन्तितप्राप्त सौख्या याच्यन्ते लब्धुकामैः कथमपविपदं धर्मतो मुक्तिकान्ताम् । सख्यं स्वीकर्तुकामाः क्षुदुरुतरतरोः काण्डविच्छेददक्षं स्वीकर्तुं किं पलालं फलममलधियः कुर्वते कर्षणं हि ॥ ७३ त्यक्त्वा भोगामिलाषं भव मरणजरारण्य निर्मूलनार्थ, दत्ते दानं मुदा यो नयविनयपरः संयतेभ्यो यतिभ्यः । भुक्त्वा भोगान रोगानमरवरवधूलोचनाम्भोज भानुनित्यां निर्वाणलक्ष्मीममितगतियतिप्रार्थनीयां स याति ।। ७४ इत्यपासकाचारे दशमः परिच्छेदः
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बाँध कर अलम्य अपार तीर वाले समुद्र में प्रवेश करते हैं ।। ६९ ।। जो भोग दिन दिन परिचर्या किये जाने पर भी रोगोंके समान बढते हुए मनुष्यों को अति पीडा देते है, वे अति निन्दनीय भोग किस विद्वान् के चाहने योग्य हो सकते है || ७० ॥
जो भोग देवोंके स्वामी इन्द्रोंके लिए भी कभी सुख नहीं देते है, वे अन्य लोगोंको तो कैसे दे सकते हैं? जो सिंह इस लोकमें मदोन्मत्त गजराज को मारते है, वे हरिणको नहीं छोडते हैं ।। ७१ ।। इस प्रकार विद्वान् पुरुषको चाहिए कि रोगके समान भोगोंके दोष जानकर उनके पाने के लिए कदाचित् भी याचना अर्थात् निदान नहीं करना चाहिए। प्रत्यक्षमें कालकूट विषकी प्राण अपहरण करनेकी शक्तिको देखता हुआ जीनेका इच्छुक पुरुष क्या उसे खाता हैं? नहीं खाता ||७२ || धर्म सेवन करके सर्व विपदाओंसे रहित मुक्तिरूपी कान्ताको प्राप्त करनेके इच्छुक पुरुष विना चिन्तवन किये ही स्वयमेव प्राप्त होनेवाले देव और मनुष्य-सम्बन्धी भोगोंकी कैसे याचना करते हैं? अर्थात् नहीं करते हैं । क्षुधा रूपी विशाल वृक्षके काण्ड - भागके विच्छेदमें दक्ष धान्यको प्राप्त करनेकी इच्छावाले निर्मल बुद्धि पुरुष क्या पलाल ( पियार भूसा) को पाने के लिए खेती करते है ? नहीं करते हैं ॥७३॥ अत एव भोगोंकी अभिलाषा छोडकर जन्म जरा मरणरूप वनके निर्मूलन करनेके लिए नय और विनयमें तत्पर जो गृहस्थ हर्षके साथ संयमी साधुओं को दान देता हैं, वह देवलोककी श्रेष्ठ देवाङ्गनाओंके नयन-कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्य सदृश होकर रोग - रहित भोगोंको भोगकर अन्तमें अमितगति यतिसे प्रार्थनीय नित्य निर्वाण-लक्ष्मीको प्राप्त करता हैं ॥७४॥
इस प्रकार अमितगति विरचित श्रावकाचार में दशम परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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