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________________ ३६० श्रावकाचार संग्रह प्रदाय दानं यतिनां महात्मनां यो याचते भोगमर्थकारणम् । मनीषितानेकसुखप्रदं मणि प्रदाय गृण्हाति स दुर्जरं विषम् ॥ ६२ ॥ पन्नगानामिव प्राणिवित्रासिनामर्जने रक्षणे पोषणे सेवने । याति घोराणि दुःखानि येषां जनः सन्ति भोगाः कथं ते मता धीमताम् || ६३॥ श्रद्धीयमाना अपि वञ्चयन्ते निषेव्यमाणा अपि मारयन्ते । ये पोष्यमाणा अपि पीडयन्ते ते सन्ति भोगाः कथमर्थनीयाः || ६४॥ उत्पद्यमाना निलयं स्वकीयं ये हव्यवाहा इव धार्यमाणाः । प्रप्लोषयन्ते हृदयं ज्वलन्तस्ते याचनीयाः कर्यामन्द्रियार्थाः ।। ६५ दत्तप्रलापभ्रमशोकमूर्च्छाः सन्तापयन्तः सकलं शरीरम् । ये दुनिवारां जनयन्ति तृष्णां ज्वरा इवंते न सुखाय सन्ति ।। ६६ विधाय दानं कुधियो यतिभ्यो ये प्रार्थयन्ते विषयोपभोगम् । ते लाङ्गलैर्गा खलु काञ्चनीयैविलिख्य किम्पाकवनं वपन्ति ॥ ६७ भिन्दन्ति सूत्राय मणि महाघं काष्ठाय ते कल्पतरुं लुनन्ति । नावं च लोहाय विपाटयन्ते भोगाय दानं ननु ये ददन्ते ।। ६८ परेरशक्यं दमितेन्द्रियाश्वाश्चरन्ति धर्मं विषयाथिनो ये । पाषाणमादाय गले महान्तं विशन्ति ते नीरमलभ्यपारम् || ६९ बुद्धिमान् गृहस्थको चाहिए कि वह विधि पूर्वक साधुओंको दान देते हुए संसार के दुःखों की शान्तिके लिए अपनी बुद्धि करें, अर्थात् संसार के दुःखोंसे छूटनेकी भावनासे साधुओं को दान देना चाहिए। किन्तु दुरन्त संसार - समुद्र में गिरानेवाली भोग-प्राप्तिकी बुद्धि तो मनसे भी नहीं करना चाहिए ||६१|| जो व्रती महात्माओंको दान देकर अनर्थ के कारणभूत भोगको चाहता है, वह मनोवाञ्छित अनेक सुखोंको देनेवाले मणिको देकर दुर्जर विषको ग्रहण करता है || ६२ || प्राणियों को अतित्रास देनेवाले सांपोंके समान जिन भोगोंके उपार्जनमें, संरक्षणमें, पोषण में और सेवन में मनुष्य घोर दुःखों को प्राप्त होता हैं, वे भोग बुद्धिमान् पुरुषोंके अभिमत कैसे हो सकते हैं? कभी नहीं हो सकते || ६३ || जो भोग श्रद्धायुक्त प्रीति करते हुए भी पुरुषोंको ठगते है, सेवन किये जाने पर भी मारते है, पोषण किये जाने पर भी पीडा देते हैं, वे भोग बुद्धिमानोंके द्वारा चाहने योग्य कैसे हो सकते हैं, कभी नहीं हो सकते || ६४|| जैसे जलती हुई अग्नि अपने उपजनेके स्थान घरको ही जला देती हैं, इसी प्रकार ये मान्यता किये गये इन्द्रियों के विषयभूत भोग जलते हुए हृदयको और भी जलाते है ||६५॥ प्रलाप भ्रम शोक मूर्च्छा आदि को देनेवाले सारे शरीरको सन्ताप पहुंचाने वाले ये भोग दुर्निवार तृष्णाको हो उत्पन्न करते हैं, वे सुख के लिए नहीं हो सकते ॥ ६६ ॥ जो कुबुद्धि लोग साधुओंको दान देकर विषयोंके उपभोगकी कामना करते है, वे सुवर्णके हलोंसे पृथ्वीको जोतकर उसमें किम्पाक वृक्षोंके वनको बोते हैं ॥ ६७॥ जो लोग भोगोंकी प्राप्ति के लिए दान देते है, वे निश्चयसे सूत्र (धागा) के पानेके लिए महामूल्य मणियोंके हारको तोडते है, काष्ठके लिए कल्पवृक्षको काटते हैं और लोहाके लिए नावको उखाडते है, ऐसा में मानता हूँ ||६८ || दमन किये हैं इन्द्रियरूप अश्व जिन्होंने ऐसे जो संयमी पुरुष विषयोंके अर्थी होकर साधारण अन्य जनोंके द्वारा अशक्य धर्मका आचरण करते हैं, वे अपने गले में महान् पाषाणको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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