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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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लक्ष्मीक्षमाकोतिकृपासपर्या निहत्य सत्या जनपूजनीयाः । निषेव्यमाणो रमसेन मानः श्वभ्रालये निक्षिपतेऽतिघोरे ।। ३४ अनन्तकालं समवाप्य नीचां यद्येकदा याति जनोऽयमुच्चाम् । तथाप्यनन्ता बत याति जातीरुच्चा गुणः कोऽपि न चात्र तस्य ।। ३५ उच्चासु नीचासु च हन्त जन्तोलब्धासु नो योनिषु वृद्धिहानी। उच्चो न नीचोऽहमपास्तबुद्धिःस मन्यते मानपिशाचवश्यः ॥ ३६ उच्चोऽपि नोचं स्वमवेक्ष्यमाणो नीचस्य दु:खं न किमेति घोरम नीचोऽपि वा पश्यति यः स्वमच्चं स सोख्यमच्चस्य न कि प्रयांति॥ ३७ उच्चत्वनीचत्वविकल्प एष विकल्पमान: सुखदुःखकारी। उच्चत्वनीचत्वमयी न योनिर्ददाति दुःखानि सुखानि जातु ॥ ३८ हिनस्ति धर्म लभते न सोख्यं कुबुद्धिरुच्चत्वनिदानकारी। उपति कष्टं सिकतानिपीडी फलं न किञ्चिज्जननिन्दनीयः ॥ ३९ यशांसि नश्यन्ति समानवृत्तेर्गदातुरस्येव सुखानि सद्यः । विवर्धते तस्य जनापवादो विषाकुलस्येव मनोविमोहः ।। ४० हुताशनेनेव तुषारराशिविनाश्यतेऽलं विनयो मदेन ।
नैवानुरागं विनयेन हीने लोकेऽशमेनेव चरित्रमेति ॥ ४१ आदि सभी जन-पूजनीय गुणोंका नाश करके अति घोर नरकालयमें शीघ्र फेंक देता हैं ॥३४॥ मान कषायके निमित्तसे यह जीव अनन्त काल तक नीची जातियोंको पाकर यदि एक बार ऊँची जातिको पा भी लेता है, तो भी पुनः अनन्तों नीच जातियोंको पाता हैं। जब यह एकादि बार ऊंच जाति को पाता भी हैं, तो दुःख है कि उसमें उसके कोई भी उच्च गुण नहीं प्राप्त होता ।।३५।। इस प्रकार ऊच और नीच जातियोंमें नाना योनियोंके पाने पर भी जीवकी कोई वद्धि या हानि नहीं होती है, अर्थात् जीवत्व विद्यमान रहता है, तथापि यह मान कषायरूप पिशाचके वश में हो बुद्धि रहित बनकर मै ऊंच हूँ, मै नीच है, ऐसा मानता है, यह अति खेदकी बात हैं ।।३६।। उच्च कुलीन पुरुष भी अपने से अधिक उच्चकुलीन पुरुषको देखता हुआ क्या नीच जातिके घोर दुःखको नहीं पाता हैं? इसी प्रकार नीच जातिका पुरुष भी स्वयंको ऊंचा देखता हुआ क्या उच्च जातिके सुखको नहीं पाता हैं? ॥३७॥ वास्तविक बात यह है कि ऊंचता और नीचताकी कल्पना एक विकल्प ही है, जिसे करने पर वह विकल्प सुख और दुःख करता है। ऊचता या नीचता मयी योनि जीवको कदाचित भी सुख या दःख नहीं देती है, किन्तु किये गये पुण्य कर्म या पाप कर्म ही जीवको सुख दुःख देते है ।।३८॥ उच्चता का निदान करने वाला कुबुद्धि अपने धर्मको नाश करता हैं और सुखको नहीं पाता है। बालूको पेलनेवाला केवल कष्ट हो पाता हैं, किन्तु वह जन-निन्दनीय पुरुष कुछ भी फलको नहीं पाता हैं ।।३९।। निदान करने वाले पुरुषका यश नष्ट हो जाता हैं, जैसे कि रोगसे पीडिन पुरुषका सुख शीघ्र नष्ट हो जाता है। उसका लोगोंमें अपवाद बढता हैं, जैसे कि विषसे आकूलित पुरुष का मनोविभ्रम बढता है ।। ४०।। जैसे अग्नि से तुषार पुंज विनष्ट होता हैं, उसी प्रकार अहंकारसे विनय गुण सर्वथा नष्ट हो जाता है। विनयसे हीन पुरुष लोकमें किसीका अनुराग नहीं पाता है जैसे कि शमभाव के विना मनुष्य चारित्र को नहीं पाता है ।।४शा गर्ववाले पुरुष
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