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________________ ३२८ श्रावकाचार-संग्रह पूता गुणा गर्ववत: समस्ता भवन्ति वन्ध्या यमसंयमाद्याः । प्ररोप्यमाणा विधिना विचित्राः किमूषरें भूमिरहाः फलन्ति ।। ४२ न जातु मानेन निदानमित्थं करोति दोषं परिचिन्त्य चित्रम् । प्राणापहारं न विलोक्यमानो विषेण तुप्ति वितनोति कोऽपि ॥ ४३ यो घातकत्वादिनिदानमज्ञः करोति कृत्वाऽऽचरणं विचित्रम् । ही वर्धयित्वा फलदानदक्षं स नन्दनं मस्मयते वराक: ॥ ४४ यः संयम दुष्करमावधानो मोगादिकांक्षां वितनोति मूढः । कण्ठे शिलामेष निधाय गुर्वी विगाहते तोयमनल्पमध्यम् ॥ ४५ त्रिधाऽविधेयं सनिदानमित्थं विज्ञानदोषं चरणं चरद्भिः । अपथ्यसेवां रचयन्ति सन्तो विज्ञातदोषा न कृतोषधेच्छाः ॥ ४६ आयासविश्वासनिराशशोकद्वेषावसावश्रमवरभेदाः । भवन्ति यस्यामवनाविवागा: सा कस्य माया न करोति कष्टम् ॥ ४७ स्वल्पाऽपि सर्वाणि निषेव्यमाणा सत्यानि माया क्षणत: क्षिणोति । नाल्पा शिखा कि दहतीन्धनानि प्रवेशिता चित्ररुचेश्चितानि ॥ ४८ नितितुं वृत्तवनं कुठारी, संसारवृक्षं सवितुं धरित्री। बोधप्रभा ध्वंसयितुं त्रियामा माया विवा कुशलेन दूरम् ॥ ४९ के यम, संयमादिक सभी पवित्र गुण निष्फल जाते है । ऊषर भूमिमें विघि पूर्वक आरोपण किये भी नाना प्रकारके वृक्ष क्या फल देते है ॥४२॥ इस प्रकार नाना प्रकारके दोषोंका चिन्तवन कर कोई भी बुद्धिमान मनुष्य मानसे निदानको कभी भी नहीं करता हैं। प्राणोंके अपहरणको करने वाले विषको देखता हुआ कोई भी पुरुष विषसे अपनी तृप्ति नहीं करता हैं ।।४३।। जो अज्ञानी पुरुष नाना प्रकारके चारित्रका पालन करके दूसरेके बात करने आदिका द्वीपायन मुनिके समान निदान करता हैं, यह दीन वराक उत्तम फल देने में समर्थ नन्दन वनका संवर्धन करके पुनः उसे भस्म करता है ।।४४।। अति कठिन संयमको धारण करता हुआ भी जोमूढ पुरुष भोग आदिकी आकांक्षाको करता हैं, वह अपने कण्ठमें भारी वजनी शिलाको बांधकर अत्यन्त गहरे जल में अवगाहन करता है ।।४५। इस प्रकार निदानके दोषोंको जानकर चारित्रका पालन करनेवाले पुरुषोंको मन वचन कायसे निदान नहीं करना चाहिए। जिन्होंने अपथ्य सेवनके दोष जान लिये है, और जो नीरोग होनेके इच्छासे औषधिका सेवन करते है ऐसे सन्त पुरुष अपथ्यका सेवन नहीं करते है इस प्रकार निदान शल्यका वर्णन किया ॥४६॥ अब मायाशल्यका वर्णन करते है-जैसे भूमिमें वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार जिस मायाके होने पर प्रयास, विश्वासका विनाश, शोक, द्वेष, अवसाद, श्रम और वैर आदि अनेक भेदवाले दोष उत्पन्न होते है, यह माया किस पुरुषको कष्ट नहीं देती है।।४७।। थोडी सी भी सेवन की गई माया क्षण भर में सर्व सत्यका विनाश कर देती है । अग्निकी प्रवेश की गई छोटी सी भी ज्वाला क्या संचित्त इंधनको नहीं जलाती है? जलाती ही है ॥४८॥ जो चारित्ररूप वनको काटने के लिए कुठारीके समान हैं, संसाररूपी वृक्षको उपजानेके लिए पृथिवीके समान हैं, ज्ञानरूप सूर्यको प्रभाका विध्वंस करने के लिए रात्रिके समान है, ऐसी मायाका कुशल पुरुषोंको दूसरे ही परित्याग कर देना चाहिए ।।४९।। यह माया मैत्री का घात करती हैं, शत्रुताको बढाती हैं,पापको विस्तारती हैं, धर्मका विध्वंस करती है, दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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