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________________ ३२६ श्रावकाचार-संग्रह ये पीडयन्ते परिचर्यमाणा ये मारयन्ते बत पोष्यमाणाः । ते कस्य सौख्याय भवन्ति मोगा जनस्य रोगा इब दुनिवाराः ।। २७ विनश्वरात्मा गुरुपङ्ककारी मेघो जलानीव विवर्धमानः । ददाति यो दुःखशतानि कष्टं स कस्य भोगो विदुषोऽनिषेभ्यः ॥ २८ यो बाधते शक्रममेयशक्ति स कस्य बाधां न करोति भोगः । यः प्लोषते पर्वतवर्गमग्निः स मुञ्चते कि तणपर्णराशिम् ॥ २९ समीरणाशीव विभीमरूपः कोपस्वभावः पररन्ध्रवर्ती। अनात्मनीनं परिहर्तकामैन याचनीयः कुटिलः स भोगः ॥३. देवं गुरुं धार्मिकमर्चनीयं मानाकुलात्मा परिभूय भूयः । पाथेयमादाय कुकर्मजालं नीचां गति गच्छति नीचकर्मा ॥३१ वामन: पामनः कोपनो वञ्चन: कर्कशो रोमशः सिध्मल: कश्मल:। कौलिको मालिक: सालिकश्छिम्पक: किङ्करो लुब्धको मुग्धकः कुष्ठिकः ।। ३२ शिवत्रक: कोशिको मूषको जाहको वज़ुलो मञ्जुल: पिप्पल: पन्नगः । कुक्कुरस्तित्तिरो रासमो वायसः कुर्कुटो मर्कटो मानतो जायते ॥३३ से मनुष्यों के द्वारा निन्दनीय अपराध हैं, जिन्हें यह दुष्ट निदान शीघ्र ही न करता हो ॥२६॥ जो भोग भली भांतिसे परिचर्या करने पर भी पीडा देते हैं और खूब पोषण किये जाने पर भी जीवोंको मारते है, अति आश्चर्य है कि वे भोग किसके सुख के लिए हो सकते है, जो कि मनुष्यको दुनिवार रोगोंके समान दुखि देते है ॥२७॥ ये सांसारिक भोग क्षण भंगुर हैं, महापाप-पंक को उपजाने वाले हैं, जैसे कि अधिक जलको बरसाने वाला मेध भारी कीचड उत्पन्न कर देता है। जो काले मेघके समान सैकडों दुःखोंको देता है, वह भोग किस विद्वान्के लिए सेवन करने के योग्य है? ॥२८।। जो काम भोग अपरिमित शक्तिशाली शक्रको भी बाधित करता हैं, वह फिर किसके बाधा नहींकरेगा? जो अग्नि पर्वतोंके समूहको भी जला देती हैं, वह क्या तूण और पत्तोंके पुंजको छोड देगी? कभी नहीं ।।२९।। काम-भोग पवन-भक्षी सूर्यके समान अतिभयंकर है, क्रोधी स्वभावाला हैं, कीडियोंके द्वारा बनाई गई बांभी के बिलोंमें रहता हैं। अतएव आत्माके अकल्याणका परिहार करनेके इच्छुक जनोंको यह सर्पके समान कुटिल गति वाला भोग कभी याचना नहीं करना चाहिए । अर्थात् सर्परूप भोगका निदान सर्वथा त्याज्य हैं ॥३०।। अब मान-निमित्तक निदानके दोष कहते हैं-मानसे जिसकी आत्मा आकुलित है,वह पुरुष देव, गुरु और धर्मात्मा पूज्य जनोंका बार बार अपमान करता हैं और उसके फलसे वह नीचकर्म उपार्जन कर खोटे कर्म जालरूप पाथेय (मार्ग-भोजन) को साथ लेकर नीच गतिको जाता हैं ॥३१॥ मानकषायके पोषण-निमित्त किये गये निदानसे यह जीव नाना गतियोंमें बौना. चर्मरोगी,क्रोधी,वंचक,कर्कश, रोम युक्त, भूरे शरीरवाला, कोली (जुलाहा), माली, सिलावट, छीपा, चाकर, लब्धक (भील), मुढ, कोढी, चीता, घूघू, मूषक,सेही वंजुल, मंजुल तथा तिप्पल जातिका पक्षी, सर्प, कुत्ता, तीतर, गर्दभ, काक, मुर्गा और वानर होता हैं ।।३२-३३।। भावार्थ-मनुष्य और तिर्यंच में जितनी भी नीच जातियां है, उनमें यह जीव मानकषायके निमित्त वाले निदानसे ही जन्म लेता है। इसी प्रकार सेवन किया गया यह मान निदान मनुष्यकी लक्ष्मी,क्षमा, कीति, दया, पूजा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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