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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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निदानमायाविपरीतवृष्टी राचपङ्क्तीरिव दुःखक/ः। ये वर्जयन्ते सुखमागिनस्ते निःशल्यता शर्मकरीह लोके ।। १८ यस्यास्ति शल्यं हृदये त्रिभेदं व्रतानि नश्यन्त्यखिलानि तस्य । स्थिते शरीरं ह्यवगाह्य काण्डे जनस्य सौख्यानि कुतस्तनानि ।। १९ प्रशास्तमन्यच्च निदानमुक्तं निदानमुक्तैर्वतिनामषीन्द्रः । विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदा द्विधा प्रशस्ता पुनरभ्यधायि ॥२० कर्मव्यपायं भवदुःखहानि बोधि समाधि जिनबोधसिद्धिम् । आकांक्षतः क्षीणकषायवृत्तेविमुक्तिहेतुः कथितं निदानम् ।। २१ जाति कुलं बान्धवजितत्वं दरिद्रतां वा जिनधर्मसिद्धच । प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तः संसारहेतुर्गदितं जिनेन्द्रः ।। २२ उत्पत्तिहीनस्य जनस्य नूनं लाभो न जातिप्रभृतेः कदाचित् । उत्पत्तिमाहुर्भवमुद्धबोधा भवं च संसारमनेककष्टम् ॥ २३ संसारलामो विवधाति दुःखं शरीरिणां मानसमाङ्गिकं च । यतस्ततः संसतिदुःखमीतस्त्रिधा निदानं न तदर्थमिष्टम् ।। २४ भोगाय मानाय निदानमीशर्यदप्रशस्तं द्विविधं तदिष्टम् । विमुक्तिलाभप्रतिवन्धहेतोः संसारकान्तारनिपातकारि ॥ २५ ये सन्ति दोषा भुवनान्तराले तानङ्गभाजां वितनोति भोगः ।
के तेऽपराधा जननिन्द्रनीया न दुर्जनो यान रभसा करोति ।। २६ है । जो इनवा परित्याग करते है, वे सुख के भागी होते है । क्योंकि लोक में निःशल्यता सुखको करने वाली है ।।१८। जिसके हृदयमें ये तीन प्रकारकी शल्य रहती है, उनके समस्त व्रत नष्द हो जाते हैं । शरीरमें भीतर प्रविष्ट हुए वाणके विद्यमान रहने पर मनुष्यको सुख कहाँ से हो सकते हैं ।।१९।। निदानसे रहित ऋषिराजोंने व्रतियोंके निदान दो प्रकारके कहै हैं-प्रशस्तनिदान और अप्रशस्त निदान । पुनः मुक्ति और संसारके निमित्त भेदसे प्रशस्त निदान भी दो प्रकारका कहा हैं ।।२०। कर्मोंका विनाश, सांसारिक दुःखोंकी हानि, बोधि, समाधि और जिनेन्द्रप्ररूपित ज्ञानकी सिद्धिको चाहने वाले कषाय-रहित पुरुषका निदान मुक्तिका कारण कहा गया हैं ।।२१। जिनधर्मकी सिद्धि के लिए उत्तम जाति, उत्तम कुल, बन्ध-बान्धवसे रहितता और दरिद्रताको चाहने वाले विशुद्धवृत्ति पुरुषंका निदान जिनेन्द्रदेव ने संसारका कारण कहा है ।।२२।। उत्पत्ति-रहित जीवके जाति आदिका लाभ कदाचित् भी नहीं होता हैं। उत्कृष्ट बोधवाले पुरुषोंने उत्पत्तिको भव कहा हैं, भव नाम संसार का हैं और संसार अनेक कष्टमय हैं ॥२३॥ यतः संसारका लाभ देहधारियोंको अनेक मानसिक और शारीरिक दुःख देता है अतः संसारके दुःखोंसे भयभीत पुरुषोंको सांसारिक सुखके लिए मन, वचन, कायसे किया गया निदान कभी भी इष्ट नहीं है ।।२४॥
अब आचार्य अप्रशस्त निदानके दोष कहते है-आचार्योंने अप्रशस्त निदान दो प्रकार का कहा हैं-भोगके लिए और मानके लिए । ये दोनों ही प्रकारका अप्रशस्त निदान मक्ति लाभके प्रतिबन्धका कारण होनेसे संसार-कानन में ही गिराने वाला हैं ।।२५।। इस लोकके मध्यमें जितने भी दोष हैं, उन सबको यह भोग-निमित्त किया गया निदान विस्तृत करता हैं । वे कौन
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