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________________ ३२४ श्रावकाचार-संग्रह योगाः दुष्प्रणिधाना: स्मृत्यनुपस्थानमावरामावः । सामायिकस्य जैनेरतिचाराः पञ्च विज्ञयाः ॥११ ज्ञेया गतोपयोगा उत्सर्गादानसंस्तरकविद्धाः । उपवासे मुनिमुख्यैरनादरः स्मृत्यसमवस्थाः ।। १२ सहचित्तं सम्बद्धं मिश्र दुष्पक्षमभिषवाहारः । भोगोपमोगविरतरतिचाराः पञ्च परिवाः ॥ १३ मत्सरकालातिक्रमसचित्तनिक्षेपणापिधानानि । दानेऽन्यव्यपदेशः परिहर्तव्या मलाः पञ्चः ॥ १४ जीवितमरणाशंसानिदानमित्रानुरागसुखशंसाः । सन्न्यासे मलपञ्चकमिदमाहुविदितविज्ञेयाः ।। १५ शङ्काकांक्षानिन्दापरशंसासंस्तवा मलाः पञ्च । परिहर्तव्याः सद्भिः सम्यक्त्वविशोधिभिः सततम् ।। १६ सप्तति परिहरन्ति मलानामेवमुत्तमधियो वतशद्धये । श्रावका जगति ये शुभचित्ता ते भवन्ति भवनोसमनायाः ॥ १७ करना (रखना), सामायिक करनेकी याद भूल जाना और सामायिक करने में आदर नहीं रखना ये पाँच अतीचार सामायिकके जैनियोंको जानना चाहिए।।११।। अब दूसरे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतके अतीचार कहते हैं-उपयोग रहित होकर विना देखे-शोधे किसी वस्तुका छोडना, ग्रहण करना और विस्तरादिका बिछाना, उपवास करनेमें अनादर करना और उपवास करना भूल जाना, ये पाँच अतीचार श्रेष्ठ मुनियोंने उपवासके कहे हैं ।।१२।। अब तीसरे भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतीचार कहते हैं-सचित्त वस्तुका आहार करना, सचित्तसे स्पर्शित वस्तुका आहार करना, सचित्तसे मिश्रित वस्तुका आहार करना, दुःपक्व वस्तुका आहार करना और गरिष्ठ वस्तुका आहार करना, ये भोगोपभोग विरक्तिके पाँच अतीचार छोडना चाहिए ।।१३।। अब चौथें अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रतके अतीचार कहते है-दान देनेवालोंके साथ मत्सर भाव रखना, दान देने के समयका उल्लंघन करना, दान-योग्य वस्तुका सचित्त पत्रादि पर रखना,आहारको सचित्त पत्रादिसे ढकना और दान दूसरेसे दिलवाना,ये पाँच अतीचार अतिथि संविभाग व्रतके है, इनका परिहार करना चाहिए ।।१४।। __अब सल्लेखनाके अतीचार कहते है-समाधिमरण लेनेके पश्चात् शरीरको स्वस्थ होता जानकर जीनेकी इच्छा करना, रोगादिके बढने पर मरणकी इच्छा करना, आगामी भवमें सुख प्राप्तिका निदान करना, मित्रोंके अनुरागका स्मरण करना और पूर्वकाल में भोगे हुए भोगोंका चिन्तवन करना ये पाँच अतीचार सर्वज्ञदेवने संन्यासके कहै है ।।१५।। अब सम्यग्दर्शनके अती. चार कहते हैं-जिनदेवके वचनोंमें शंका करना, भोगोंकी आकांक्षा करना, मिथ्या दृष्टियोंकी प्रशंसा करना और उनकी स्तुति करना ये पाँच सम्यग्दर्शनके अतीचार हैं। सम्यग्दर्शनकी शुद्धि चाहने वाले सन्तोंको इनका निरन्तर परिहार करना चाहिए ।।१६।। जो उत्तम बुद्धिवाले श्रावक ब्रतोंकी शुद्धि के लिए उपर्युक्त सत्तर अतीचारोंका परिहार करते है, वे प्रशस्त चित्त पुरुष तीनों भुवनोंके उत्तम स्वामी होते हैं ॥१७।। अब शल्य दूर करनेका उपदेश देते है-निदान, माया और विपरीत दृष्टि (मिथ्यात्व) ये तीन शल्य वाणोंकी पंक्तिके समान दुःखों को करनेवाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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