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________________ पुरुषार्थसिद्धययुपाय को नाम विशति मोहं नयभङ्गविशारदानुपास्य गुरून् । विदितजिनमतःहस्यः श्रयन्नहिसां विशद्धमतिः ।। ९० यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः॥९१ स्वक्षेत्रकालभावःसदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु। तत्प्रथमसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥९२ असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रक लभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनतमस्मिन् यथास्ति घटः ॥९३ वस्तुसदापि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरितियथाऽश्वः।।९४ गहितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृत तुरीय तु ।। ९५ पैशुन्य हासगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलापतं च । अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्व गहितं गदितम् ।। ९६ छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावा यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते.॥ ९७ अरतिकरं भीतिक खेदकर वरशोककलहकरम् । यदपरमपितापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम्।।९८ मत प्रचलित था। उसकी मान्यता थी कि जैसे धडेमें बन्द चिडिया घडेके फोड देनेसे छटकारा पा जाती हैं, इसी प्रकार शरीरका घातकर देनेपर आत्मा भी शरीरबन्धनसे विमुक्त हो जाता हैं। ग्रन्थकार इसे लक्ष्यमें रख कर कहते हैं,कि इस प्रकार किसीको बन्धन-मुक्त होने या करनेकी भावनासे उसके शरीरका घात नहीं करना चाहिए और न इस प्रकारसे मोक्ष-प्राप्तिका श्रद्धान ही करना चाहिए। तथा,कृश उदरवाले किसी भूखे पुरुषको भोजनके लिए सामने आता हुआ देखकर अपने शरीरके मांसको दान करनेकी इच्छासे शीघ्रतापूर्वक अपने आपका भी घात नहीं करना चाहिए ।।.८९। भावार्थ-कुछ लोग भूखे पुरुषको अपने शरीरके मांस-दान में भारी पुण्य मानते है । उन्हें लक्ष्य में रखकर कहा गया हैं कि उनका यह कृत्य भी पापरूप ही हैं । जिनदेवोपदिष्ट अनेक नयभेदोंके विशारद गुरुजनोंकी उपासना करके जिनमतके रहस्यको जाननेवाला और अहिंसाका आश्रय लेनेवाला ऐसा कौन विशुद्ध बुद्धि पुरुष है,जो उपर्युक्त प्रकारके मोहमें प्रवेश करेगा? अर्थात् जैनधर्म के नयोंका ज्ञाता कोई भी पुरुष ऊपर कहे हिंसाके विविध प्रकारोके मोहचक्रमें नहीं पडेगा ॥९०॥ प्रमादके योगसे जो कुछ भी असत् कथन किया जाता हैं, वह सर्व असत्य जानना चाहिए। उस असत्यके चार भेद हैं ॥९१।। जिस वचन में अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावसे विद्यमान भी वस्तु निषेधित की जाती हैं,वह प्रथम प्रकारका असत्य हैं । जैसे देवदत्तके होते हुए भी यह कहना कि देवदत्त यहाँ नहीं है' ।।९।। जिस वचनमें पर द्रव्य क्षेत्र काल भावसे अविद्यमान भी वस्तु-स्वरूप प्रकट किया जाता हैं, वह दूसरे प्रकारका असत्य हैं। जैसे घडेके नहीं होनेपर भी यह कहना कि यहांपर घडा है ।।९३।। जिस वचनमें अपने स्वरूप चतुष्टयसे विद्यमान भी वस्तु अन्य स्वरूपसे कही जाती है,यह तीसरे प्रकारका असत्य जानना चाहिए । जैसे-बैलको घोडा कहना ॥९४॥ और चौथे प्रकारका असत्य गर्हित,सावद्य और अप्रियरूपमें सामान्यसे तीन प्रकारका माना गया है।।९५।। जो वचन पिशुनता और हंसीसे मिश्रित हैं, कर्कश हैं, मिथ्याश्रद्धानरूप हैं,व्यर्थ की बकवादरूप हैं,तथा और भी जो इसी प्रकारकेसूत्र-प्रतिकूलवचनहै,वेसबर्हित (निन्दित) वचन कहे गये हैं।।९६।। जिन वचनोंसे प्राणि-घात आदिकी प्रवृति हो, ऐसे छेदन, भेदन, मारण, कर्षण,वाणिज्यऔरचोरीआदिकेवचनोंकोसावद्य वचनजाननाचाहिए।।९७॥जो वचन अप्रीति-कारक, भय-जनकखेद-उत्पादक,वैर-वर्धक,शोक-कारक,कलह-कारकऔर दूसरेको सन्तापकारी है,उन सबको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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